गुरुवार, 14 नवंबर 2013

नरेश दिवाकर के जनसंपर्क में खूनी संघर्ष!

नरेश दिवाकर के जनसंपर्क में खूनी संघर्ष!

बीजेपी नेताओं ने की मारपीट, चार लोग घायल

(अय्यूब कुरैशी)

सिवनी (साई)। सिवनी जिले में चुनावी बयार अब तेज होती दिख रही है। सिवनी की चार विधानसभाओं में से सिवनी विधानसभा में चुनाव में कुछ हिंसा होने की खबरें मिल रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के सिवनी विधानसभा क्षेत्र के भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी नरेश दिवाकर के जनसंपर्क के दौरान पुसेरा में खूनी संघर्ष होने की खबर है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के ग्राम पुसेरा में भारतीय जनता पार्टी के सिवनी विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशी नरेश दिवाकर के जनसंपर्क के दौरान पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा मारपीट करने से चार ग्रामीणों के घायल होने की जानकारी मिली है।
 पुलिस के अनुसार बंडोल थाना क्षेत्र के ग्राम पुसेरा में 10 नवंबर की रात भाजपा कार्यकर्ताओं ने किसी विवाद पर ग्रामीणों से मारपीट कर दी। इस दौरान एक कार्यकर्ता ने तलवार से भी प्रहार कर दिया। इस घटना में घायल हुए चारों ग्रामीणों जागेश्वर बघेल, प्रदीप बघेल, रामकुमार बघेल और राकेश बघेल को जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया।
 गंभीर रूप से घायल हुये जागेश्वर बघेल को बाद में उपचार के लिये नागपुर भेज दिया गया। पुलिस मामला दर्ज कर जांच कर रही है। जिला कलेक्टर एवं जिला निर्वाचन अधिकारी भरत यादव ने बताया कि इस मामले के दोषियों पर सख्त कायवाही की जायेगी।

गौरतलब है कि इस विधानसभा चुनाव में मसल पॉवर और मनी पॉवर के दुरूपयोग की आशंका पूर्व में भी समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया और हिन्द गजट द्वारा व्यक्त की जा चुकी है।

आखिर, कौन समझेगा सिवनी जिले की प्रसव वेदना!

आखिर, कौन समझेगा सिवनी जिले की प्रसव वेदना!

(लिमटी खरे)

1 नवंबर 1956 को अंतिम बार अस्तित्व में आए सिवनी जिले को देखकर कोई भी कह सकता है कि सिवनी जिला आज़ादी के साढ़े छः दशकों बाद भी प्रसव वेदना से लगातार दो चार होता आया है। सिवनी के नीति निर्धारक और देश की सबसे बड़ी पंचायत यानी संसद और प्रदेश की नीति निर्धारक विधानसभा में सिवनी का पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने के बाद भी सिवनी का नवनिर्माण न हो पाना अपने आप में शर्मिंदगी भरा ही माना जा सकता है। आज उमर दराज या प्रौढ़ हो रही पीढ़ी के मानस पटल पर सिवनी के विकसित न हो पाने का दर्द साफ देखा जा सकता है।
अपने आंचल में अकूूत वन संपदा समेटने वाली इस सिवनी के राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात होने के अनेक कारक हैं। इनमें जगतगुरू स्वामी शंकराचार्य की जन्म स्थली, भेड़िया बालक मोगली की कर्मस्थली, एशिया के सबसे बड़े मिट्टी के बांध (संजय सरोवर परियोजना), बेहतरीन क्वालिटी के चंदन के लिए प्रसिद्ध चंदन बगीचा, सिंचाई विभाग के मुख्य अभियंता का कार्यालय, लोक निर्माण विभाग के अधीक्षण यंत्री का कार्यालय, राष्ट्रीय राजमार्ग के कार्यपालन यंत्री का कार्यालय, उम्दा किस्म के चावल का उत्पादक, काले हिरण (चिंकारा), सिवनी की पुरानी जिला जेल और सुधारालय जिसमें महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता संग्राम सैनानी के साथ ही साथ पीर पगारो जैसी हस्तियां भी बंद थीं, जिनसे गोरे ब्रितानी अंग्रेज भय खाते थे।
अस्सी के दशक तक तो सिवनी के वाशिंदे अपने आप को गौरवांवित महसूस किया करते थे कि वे ऐसी माटी में जन्मे या रह रहे हैं, जहां संपन्नता और समृद्धि है। सिवनी के नागरिक पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित गार्गीशंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा के द्वारा सिवनी को दी गई सौगातों को पाकर अपने आप को प्रफुल्लित महसूस किया करते थे। ऐसा नहीं है कि विमला वर्मा और गार्गी शंकर मिश्र को विरोध न झेलना पड़ा हो।
याद पड़ता है कि सिवनी में खेल के स्टेडियम के मामले में उस समय स्कूल और कॉलेज के युवाओं के विरोध का लंबे समय तक सामना करना पड़ा था पंडित गार्गीशंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा को। सुश्री विमला वर्मा और पंडित गार्गी शंकर मिश्र द्वारा सिवनी में स्टेडियम की मांग पर बारंबार बनवाने का आश्वासन दिया जाता रहा। उस वक्त जुझारू छात्र नेता संजय चौरसिया द्वारा उद्यत एक नारा याद पड़ता है जो सभी की जुबान पर छा गया था और वह था -‘‘आश्वासन नहीं, स्टेडियम चाहिए। अर्थात अब आश्वासन नहीं चाहिए अब तो स्टेडियम ही चाहिए। अंत में सिवनी के युवाओं के सामने पंडित गार्गी शंकर मिश्र और सुश्री विमला वर्मा को झुकना पड़ा तथा सिवनी में पुलिस लाईन्स के पीछे एक स्टेडियम की सौगत मिल पाई सिवनी को।
शनैःशनैः सिवनी में समृद्धि और संपन्नता को मानो ग्रहण लगना आरंभ हो गया हो। सिवनी में जो कुछ था वह भी एक के बाद एक करके मुट्ठी की रेत के मानिंद फिसलने लगा। सिवनी के लोग हैरान परेशान थे कि आखिर क्या कारण है कि कहां तो जनसेवकों द्वारा सिवनी में एक एक ईंट जोड़कर आशियाना बनाया गया और कहां जनसेवकों द्वारा पूर्व के जनसेवकों की सौगातों को ही सहेजकर नहीं रखा जा पा रहा है। इसी उहापोह में नागरिक रहे और सिवनी की सौगातों के पिटारे में से एक एक कर सौगातें या तो लोगों की आंखों में धूल झोंककर या बलात् निकालकर अन्य जिलों के सरमायादारों द्वारा ले जाई जाती रहीं।
नब्बे के दशक के आगाज के साथ ही सिवनी जिले को मिलने वाली सौगातों का सिलसिला थमने सा लगा। लोगों को लगा कुछ समय बाद ही सही सिवनी की झोली में सौगातें मिलना आरंभ हो जाएंगी। समय बीतता गया सिवनी की झोली में आने वाली रसद बेहद कम होती गई। एक के बाद एक सौगातें मिलने की संभावनाएं के क्षीण होती देख सिवनी वासियों का मन आशंकाओं कुशंकाओं से घबराने लगा।

जनसेवक पता नहीं किसके दबाव में या फिर निहित स्वार्थ के चलते मौन साधे हुए थे, पर सिवनी की जनता लगातार लुट रहे अपनी अमूल्य धरोहरों के खजानों को लुटता देखकर बस इसी डर में आशंकित थी कि कहीं पहरेदार इसी तरह आंख बंद कर बैठे रहे और उसका सौगातों का खजाना रीत न जाए . . .।

निष्पक्ष चुनाव और सरकारी नुर्माइंदे

निष्पक्ष चुनाव और सरकारी नुर्माइंदे

(शरद खरे)

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा निष्पक्ष चुनाव के लिए अपनी कटिबद्धता सदा ही दुहराई जाती है। चुनाव आयोग की हां में हां मिलाकर सियासी दल के नुर्माइंंदे और सरकारी कर्मचारी भी निष्पक्ष चुनाव की बात कहा करते हैं। निष्पक्ष चुनाव का सीधा मतलब होता है न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। अर्थात किसी के पक्ष में न तो प्रचार करना, न ही किसी के खिलाफ पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर काम करना। आज़ाद भारत में शुरूआती दौर में तो सब कुछ ठीक ठाक चला पर कालांतर में मामला कुछ गड़बड़ा गया। सरकारी नुर्माइंंदों ने सियासी दलों के साथ कदमताल मिलाने आरंभ कर दिए।
सिवनी में हाल ही में बरघाट विधानसभा में खण्ड चिकित्सा अधिकारी पर कमलके प्रचार के आरोप लगे। जांच में ये आरोप सत्य पाए गए, यह एक बहुत बड़ा उदाहरण है जिसकी निंदा करने से काम नहीं चलेगा। आखिर क्या वजह है कि सरकारी नुर्माइंंदे अपने मूल काम को छोड़कर किसी नेता या दल विशेष के काम को ही अपनी नौकरी मान लेते हैं, जबकि उन्हें सरकारी काम करने के एवज में पगार मिलती है।
जाहिर है राजनैतिक दलों के नुर्माइंंदों द्वारा उन्हें प्रश्रय दिया जाता होगा। अब प्रश्न यह उठता है कि प्रश्रय की दरकार किसे होती है? शायद उसे जो गलत काम करता हो। वरना सीधी साधी नौकरी करने वाले को किसी नेता के प्रश्रय की क्या दरकार! किसी को क्या परवाह कि उसे जनसेवक सहयोग दे, उसका पक्ष ले या संरक्षण दे। निश्चित तौर पर गलत करने वाले को ही राजनैतिक संरक्षण की दरकार होती है।
चुनाव के दौरान कई बार यह भी देखा गया है कि अगर किसी के द्वारा, किसी सक्षम अधिकारी से किसी प्रत्याशी के द्वारा आचार संहिता के उल्लंघन की शिकायत की जाती है, तो उस समय अधिकारी द्वारा मौके पर जाने में हीला हवाला किया जाता है। आज का युग संचार क्रांति का युग है। इस युग में सूचना एक स्थान से दूसरे स्थान तक बहुत ही जल्दी और आसानी से पहुंचाई जा सकती है। अनेक बार इस तरह के समाचार भी मिलते हैं कि फलां उम्मीदवार की शिकायत पर फलां अधिकारी के पास वाहन न होने से वह मौके पर विलंब से पहुंचा।
पिछले दिनों बरघाट विधानसभा क्षेत्र के मुख्यालय बरघाट में पदस्थ खण्ड चिकित्सा अधिकारी डॉ.उषा श्रीपाण्डे के खिलाफ कामरेड राजेंद्र चौहान द्वारा एक शिकायत मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी भोपाल को की गई। इस शिकायत की जांच जिला निर्वाचन अधिकारी सिवनी द्वारा करवाई गई। यह शिकायत जांच में सत्य पाई गई और खण्ड चिकित्सा अधिकारी डॉ.उषा श्रीपाण्डे का मुख्यालय सिवनी कर दिया गया।
देखा जाए तो यह एक राजनैतिक दल के प्रति निष्ठा जताने का मामला था एक सरकारी नुमाईंदे का। कोई भी सरकारी नुर्माइंंदा एक आदमी ही होता है और वह किसी दल विशेष या प्रत्याशी के लिए अपने मन में अनुराग या निष्ठा रख सकता है। उसकी निष्ठा व्यक्तिगत होनी चाहिए। उसके कामकाज में अगर वह निष्ठा दिखाई देती है तो इसे उचित किसी भी दृष्टिकोण से नहीं माना जा सकता है। इसके लिए उस सरकारी नुर्माइंंदे को दोषी करार दिया जाकर उससे जवाब तलब करना आवश्यक है। वैसे यह मामला प्रशासनिक स्तर का और प्रशासन के नुर्माइंंदों का है।
अगर जिला निर्वाचन अधिकारी ने यह पाया है कि खण्ड चिकित्सा अधिकारी बरघाट द्वारा भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार कर मतदाताओं को रिझाया जा रहा है तो यह निश्चित तौर पर बेहद ही संगीन मामला है। इस मामले में भारत निर्वाचन आयोग को तत्काल ही कठोर कार्यवाही करना चाहिए।
जिस तरह मीडिया में भी सियासी दलों ने अपने अपने लोगों की घुसपैठ बना ली है, और मीडिया पथभ्रष्ट होता जा रहा है, उसी तरह नौकरशाही को भी यह दीमक खा रहा है। मीडिया में काम करने वाला किसी दल या प्रत्याशी विशेष का अनुयायी हो सकता है, पर उसकी लेखनी में कभी भी यह अनुराग या प्रेम झलकना नहीं चाहिए। अगर ऐसा होता है तो निश्चित तौर पर वह अपने काम के साथ न्याय नहीं कर रहा है।
कमोबेश यही स्थिति सरकारी कर्मचारियों के साथ होती है। एक बार के वाक्ये का जिकर यहां लाजिमी होगा। सालों पहले चुनावी कव्हरेज में खजुराहो प्रेस टूर के दौरान जब तत्कालीन कलेक्टर से यह सवाल पूछा गया कि वे व्यक्तिगत तौर पर किस पार्टी में दिलचस्पी रखते हैं, किस नेता से वे विशेष रूप से प्रभावित हैं, इस पर उन्होंने कुशलता के साथ छूटते ही जवाब दिया कि प्रशासन सदा ही शासन के साथ होता है, जिसका शासन उसका प्रशासन।अर्थात प्रशासन का कारिंदा किसी दल विशेष में अपनी निष्ठा नहीं रखता है।
खण्ड चिकित्सा अधिकारी बरघाट पर कमल के चुनाव प्रचार की बात साबित हो गई है। इसलिए अब जिला प्रशासन और चुनाव अयोग को अधिक संवेदनशील और सतर्क रहने की आवश्यकता है। अनेक सियासी लोगों और विधायक सांसदों के करीबी रिश्तेदार भी सालों से सिवनी में ही तैनात हैं। वैसे तो इनका तबादला पहले ही हो जाना चाहिए था, पर पता नहीं क्यों इन पर शासन ने अपनी नजरें इनायत नहीं की हैं। अब इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि ये कारिंदे चुनावों को किसी भी दृष्टिकोण से प्रभावित नहीं करेंगे।

हो सकता है कि जिन सरकारी नुर्माइंंदों के रिश्तेदार सियासत में घोषित तौर पर हों उन्हें चुनाव के कार्य से प्रथक रखा गया हो, पर यह तो उनके लिए एक पारितोषक से कम नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे चुनाव के काम से मुक्त रहकर और बेहतर तरीके से अपने सगेवालों के पक्ष में माहौल बना सकते हैं। बहरहाल, संवेदनशील जिला कलेक्टर भरत यादव जो सिवनी के जिला निर्वाचन अधिकारी भी हैं, ने हर पहलू पर सारे दृष्टिकोण से विचार अवश्य ही किया होगा, किन्तु बरघाट खण्ड चिकित्सा अधिकारी द्वारा कमल के पक्ष में किए जाने वाले चुनाव प्रचार के साबित होने से चुनाव आयोग की परेशानियां बढ़ जाएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।