शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

मजे में हैं अवैध बसाहट के जिम्मेदार!

मजे में हैं अवैध बसाहट के जिम्मेदार!

(शरद खरे)

अवैध कॉलोनी या बसाहट मानवता के प्रति एक जुर्म से कम नहीं है। अवैध कॉलोनी बसाकर कॉलोनाईजर्स मोटा माल कमाते हैं इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता हैै। लोगों को तरह तरह के प्रलोभन देकर आकर्षित करने से नहीं चूकते हैं कॉलोनाईजर्स, जब लोग इनके जाल में फंस जाते हैं तब ये अपना असली चेहरा दिखाकर लोगों को बेवकूफ बना देते हैं। लाखों रूपए फंसाने के बाद लुटा पिटा उपभोक्ता कहीं जाकर शिकायत करने की स्थिति में भी नहीं होता है। वह मजबूरी में उस अवैध कॉलोनी या बसाहट में मकान बनाकर रहना आरंभ कर देता है। गर्मी और सर्दी का मौसम तो जैसे तैसे निकल जाता है पर बारिश में जब पहुंच मार्ग ही नहीं होता है तब वह हैरान परेशान हो उठता है। गंदे पानी की निकासी के लिए नाली न होने से उसके घर के आसपास ही गंदगी बजबजाती रहती है। पानी के पोखरों में तब्दील यह गंदगी शहर में घूम रहे आवारा सुअरों के स्वीमिंग पूल के रूप मेें प्रयोग में आता है।
सिवनी शहर में ही दर्जनों कॉलोनियां अवैध रूप से अस्तित्व में हैं। खुद नगर पालिका परिषद् इस बात को स्वीकार कर चुकी है। आखिर क्या कारण है कि अवैध कॉलोनियां एक एक कर अस्तित्व में आती जा रही हैं। क्या इसके लिए किसी की जवाबदेही नहीं है? क्या जनप्रतिनिधि और जिम्मेदार सरकारी नुर्माइंंदे हाथ पर हाथ रखे गलत काम होता देख रहे हैं? अगर सिवनी के किसी वार्ड में अवैध निर्माण हो रहे हैं तो उस वार्ड का पार्षद, नगर पालिका की निर्माण शाखा और शहर के पटवारी क्या मदकके नशे में चूर थे? क्या कारण है कि अब तक जिला प्रशासन ने इस संबंध में दिशा निर्देश जारी कर स्थानीय निकाय के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, पार्षद, पंच सरपंच सहित स्थानीय निकाय के जिम्मेदार अधिकारियों, राजस्व विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों की अवैध निर्माण के प्रति जवाबदेही निर्धारित नहीं की है?
छपारा शहर में प्रस्तावित गोविंद धामके कॉलोनाईजर्स ने तो सारी हदें ही पार कर ली हैं। समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया से चर्चा के दौरान पिछली मर्तबा कॉलोनाईजर के गुर्गे ने साफ कहा था के जिला प्रशासन चाहकर भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता है क्योंकि उसके संचालकों की सियासी पहुंच बहुत उपर तक है। यही कारण है कि मीडिया के कुछ लोगों को साथ लेकर उनके संचालकों द्वारा तहसीलदार को भी साध लिया गया है। जिसे गोविंद धामके बारे मेें जो छापना हो छाप ले। जिला प्रशासन भी उसके खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर पाएगा! वस्तुतः कॉलोनाईजर के गुर्गे की बात में दम दिख रहा है। लगभग तीन माह पहले समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया द्वारा गोविंद धामके कॉलोनाईजर के द्वारा जरूरी अनुमतियों के बिना ही प्लाट बेचे जाने की खबरें प्रसारित की थीं, पर इस संबंध में जिला प्रशासन या एसडीओ राजस्व, तहसीलदार द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है।
किसी भी कॉलोनाईजर द्वारा जब कॉलोनी काटी जाती है तो अमूमन ग्रीन बेल्ट पर ही कुछ पत्थर गाड़कर उन्हें चूने से रंगकर प्लाट की स्थिति, मनगढंत, पार्क, पानी की टंकी, सड़क, वृक्षारोपण, खेल का मैदान, धर्मस्थल, ड्रेनेज आदि को नक्शे पर इस तरह उकेरा जाता है मानो देखने वाला परीलोक में आ गया हो। प्लाट के मानचित्र (कागजों पर) में पहले से ही कुछ प्लाट पर लाल स्याही से चिन्हित कर दिया जाता है, जब खरीददार द्वारा उसके बारे में पूछा जाता है तो कॉलोनाईजर्स द्वारा बहुत ही करीने से उन प्लाट्स को बिका हुआ दर्शा दिया जाता है। साल छः माह में जितने प्लाट बुक होते हैं उन प्लाट्स के हिसाब से नए नक्शे में लाल रंग के बिके हुए प्लाट्स की स्थिति बदल दी जाती है। अर्थात शुरूआत में बिके हुए प्लाट्स अब नई कीमतों पर (कॉलोनी में कुछ प्लाट बिकने पर दाम बढ़ना स्वाभाविक ही है) बिकने के लिए तैयार हो जाते हैं। मजे की बात तो यह है कि इस समय तक भी आधे से ज्यादा कॉलोनियों के पास जरूरी सरकारी अनुमति ही नहीं होती है।
प्लाट की बुकिंग राशि, पहली, दूसरी किश्त लेकर कॉलोनाईजर्स द्वारा जरूरी सरकारी अनुमति लेने का काम किया जाता है। कहा जाता है तब तक भी वह भूखण्ड जो ग्रीन बेल्ट का है, का डायवर्शन तक नहीं हो पाता है और वह कॉलोनाईजर के नाम पर भी नहीं चढ़ पाता है। अगर सारी अनुमति मिल गई तो ठीक वरना उसी स्थिति में ही कॉलोनाईजर द्वारा भूखण्ड के असली मालिक को बुलवाकर खरीददार के पक्ष में रजिस्ट्री करवा दी जाती है। रजिस्ट्री होते ही खरीददार द्वारा अपने स्वामित्व वाले भूखण्ड पर मकान निर्माण का नक्शा तैयार करवाया जाता है। तब तक कॉलोनी के लगभग सारे प्लाट बिक चुके होते हैं। जैसे ही खरीददार स्थानीय निकाय में नक्शा पास करवाने जाता है उसे पता चलता है कि कॉलोनी तो अवैध है। तब उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाती है। उस वक्त तक वह बड़ी राशि खर्च कर चुका होता है। इसके बाद वह ले देकर काम करवाकर मकान का निर्माण कर लेता है। चूंकि कॉलोनी वैध ही नहीं है इसलिए वहां नाली सड़क, सफाई, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होती हैं। मजबूरी में वह नारकीय जीवन जीने पर मजबूर हो जाता है।

सवाल यह उठता है कि जब कॉलोनी काटने के विज्ञापन जारी होते हैं, रजिस्ट्री होती है, मकान बन रहा होता है तब स्थानीय निकाय के प्रतिनिधि और जिम्मेदार सरकारी अधिकारी कहां होते हैं? बिना बुनियादी सुविधाओं के कॉलोनी काटना क्या उचित है? यह मानवता के प्रति अपराध से कम नहीं है! कुल मिलाकर जन प्रतिनिधियों, सरकारी अधिकारियों और कॉलोनाईजर्स के त्रिफला ने आम उपभोक्ता जो प्लाट खरीदता है की सेहत बुरी तरह बिगाड़ रखी है। संवेदनशील जिला कलेक्टर भरत यादव से ही आम जनता को अब उम्मीदें बचीं हैं।

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