बुधवार, 21 अगस्त 2013

कांग्रेस ने सदा ही छला है केवलारी वासियों को!

कांग्रेस ने सदा ही छला है केवलारी वासियों को!

विकास की किरण नहीं पड़ पाई हरवंश सिंह की केवलारी विधानसभा में, आजादी के साढ़े़ छः दशकों बाद भी बाबा आदम के जमाने की व्यवस्थाओं से पढ़ने जाते हैं नौनिहाल

(महेश रावलानी/इंजीनियर उदित कपूर/अरूण चंद्रोल)

सिवनी (साई)। सिवनी जिले में केवलारी विधानसभा क्षेत्र को वैसे तो जिले का सबसे समृद्ध विधानसभा क्षेत्र माना जाता है पर यह बाज़ीगरी महज कागज़ों पर ही है। केवलारी विधानसभा क्षेत्र की जमीनी हकीकत कुछ और बयां करती है। इस विधानसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कमोबेश कांग्रेस के पास ही रहा है पर कांग्रेस के रहते भी केवलारी विधानसभा क्षेत्र में विकास की किरण प्रस्फुटित नहीं हो सकी है। इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री विमला वर्मा, श्रीमती नेहा सिंह के अलावा कांग्रेस के कद्दावर नेता हरवंश सिंह ठाकुर ने सालों साल किया है। हरवंश सिंह को उनके समर्थक और चाटुकारों द्वारा मीडिया में विकास पुरूषकी संज्ञा दी जाती रही है। विडम्बना ही कही जाएगी कि हरवंश सिंह के विधायक रहते भी केवलारी विधानसभा के लोग बाबा आदम की व्यवस्थाओं में जीने पर मजबूर हैं। आज भी शाला जाने के लिए केवलारी के नौनिहालों को कभी रेल की पटरी वाले पुल को पार करने का जोखिम उठाना पड़ता है तो कभी नाव की गांठनी होती है। कांग्रेस विशेषकर हरवंश सिंह ठाकुर द्वारा केवलारी विधानसभा में विकास के प्रतिमान गढ़़ने के दावे अपने चाटुकारों के माध्यम से सदा से ही किए गए हैं पर जमीनी हकीकत से अगर आप रूबरू होंगे तो निश्चित तौर पर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे।
सिवनी जिले का केवलारी विकासखण्ड अपनी ही दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। केवलारी विधानसभा के सुआ, टकटुआ, चिरई डोंगरी, कोपीझोला, पीपरदौन, पाढंरापानी, मशानबर्रा, दामीझोला, बंजर, डंूडलखेड़ा ऐसे गांव हैं जहां आजादी के 66 साल बाद भी बिजली नहीं पहुंच सकी है। यह है विकास पुरूष हरवंश सिंह ठाकुरकी सल्तनत् यानी विधानसभा क्षेत्र, जहां की जनता ने कांग्रेस पर सबसे ज्यादा भरोसा किया है। यहां से हरवंश सिंह चार बार विधायक चुने गए हैं। अब उनके अवसान के उपरांत यह सल्तनत् उनके पुत्र रजनीश सिंह के हाथों हस्तांतरित किए जाने की तैयारी की जा रही है। कांग्रेस के अंदर रजनीश सिंह की ताजपोशी की तैयारियां चल रही हैं। बारिश पानी की तबाही के बीच मंगलगान गाए जा रहे हैं। बारिश में लोगों का अनाज बह गया है, मवेशी बह गए, गांव वालों को खाने के लाले पड़े हैं और हरवंश सिंह के सुपुत्र रजनीश सिंह उन्हें अनाज बांटने के स्थान पर कंबल बांटकर अपने कथित जरखरीद मीडिया में फोटो छपवा रहे हैं।
क्षेत्र के विकासके दावों के पीछे का स्याह सच यह है कि यहां बच्चे रेल्वे के लिए बने पुल पर से स्कूल जाने को मजबूर हैं। ग्राम कंडीपार के हालातों पर समाचार एजेंसी ऑफ इंडिया के विशेष प्रतिनिधि इंजीनियर उदित कपूर की विशेष रपट संडे स्पेशलमें 14 जुलाई को क्या वाकई आजादी के साढ़े छः दशक बीत गए!शीर्षक से प्रकाशित की जा चुकी है। इसमें स्पष्ट तौर पर दर्शाया गया था कि कंडीपार के बच्चे किस तरह जान हथेली पर रखकर रेल के पुल से आना जाना करते हैं। दरअसल, यह है हरवंश सिंह पर लगातार चार बार भरोसा कर उन्हें जनादेश देने का नतीजा।
आज चलिए आपको केवलारी के इस कथित विकाससे रूबरू करवाते हैं। ये दास्तां हैं एक ऐसे सफर की जहां हर पल मौत अपने पंख फैलाए खड़ी रहती है, इस इंतजार में कि कब कश्ती डगमगाए और वो उसमें बैठे लोगों को अपने आगोश में ले ले। ये तस्वीरें हैं मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के केवलारी ब्लॉक की, जहां के लोग हर रोज इसी तरह अपनी जान हथेली पर रखकर नदी को पार करते हैं। दो फीट चौड़ी और सिर्फ कुछ इंच ऊंची नाव जब नदी के बहाव की वजह से डगमगाती है तो नाव पर बैठे लोगों को तो जैसे भगवान याद आ जाते हैं। नाव पर छोटे-छोटे छेद होने की वजह से उसमें पानी भी भरता रहता है जिसे एक-दो चक्कर के बाद खाली करना पड़ता है, और तो और पानी का बहाव तेज होने पर बच्चों को भी नाव चलाने पर मजबूर होना पड़ता है। मौत के इस रास्ते पर सफर करना तो दूर, इसे देखकर ही आपकी रूह कांप जाएगी, लेकिन यहां के बच्चों से लेकर दूसरे बाशिंदे आज़ादी के 66 साल बाद भी नाव के सहारे रास्ता पार करने पर मजबूर हैं। आज भी यहां के नौनिहालों को स्कूल तक का सफर अपनी जान हथेली पर रखकर करना पड़ता है।
समाचार एजंेसी ऑफ इंडिया के ब्यूरो ने जब चलती नाव की सवारी गांठी और नाव में ही एक छात्रा अभिलाषा से पूछा तो उसका कहना था पढ़ाई के लिए नाव पर स्कूल जाना पड़ता है, क्योंकि कोई साधन नहीं है, डर भी लगता है, नाव पर बैठकर जाते हैं, अब क्या करें स्कूल तो जाना पड़ेगा। वहीं एक अन्य छात्रा शीतल से जब सवाल किया गया कि नाव पर स्कूल क्यों जाते हो?, तो उसने  जवाब दिया कि स्कूल तो जाना ही है पढ़ने के लिए, डर लगता है लेकिन कोई साधन नहीं है पुल भी नहीं बना है अभी, दो साल से बन रहा है।
वहीं एक अन्य छात्रा भारती बघेल का कहना था कि यहां कोई पुल नहीं है, आने जाने में बहुत दिक्कत होती है, बहुत डर लगता है। एक अन्य छात्र अंकित बघेल तो मानो बुरी तरह डरा हुआ ही लगा उसने कहा कि डर लगता है बहुत, पानी तेज रहता है, बहाव रहता है और पढ़ना है तो जाना ही पड़ता है, मजबूरी है हमारी, क्या करें।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि अगर आपके बच्चे को एक दिन भी ऐसा सफर तय करके स्कूल जाना पड़े तो आपका क्या हाल होगा, यहां के लोगों के लिए तो ये रोज की बात है, लेकिन ऐसा नहीं है उन्हें अब डर लगना बंद हो गया है, आज भी बच्चा जब तक स्कूल से ना लौट आए तब तक मां का दिल घबराता ही रहता है।
ग्राम मलारा निवासी अनीता का कहना था कि बच्चे नाव से नदी पारकर जाते हैं, बहुत दिक्कत होती है, बहुत परेशानी से जाते हैं, कभी गिर जाते हैं, गीले होकर वापस आ जाते हैं, बहुत लापरवाही कर रहे हैं, पुल नहीं बना सके, फिसलन रहती है, कीचड़ रहता है, बहुत परेशानी से जाते हैं सभी बच्चे, जब तक बच्चे लौट नहीं आते चिंता लगी रहती है, पानी गिरने लगता है, तो नदी तक देखने जाना पड़ता है। ग्राम की ही उर्मिला बाई का कहना था कि बच्चे नाव से स्कूल जाते हैं, डर लगता है, घबराहट होती है, जब तक आएं ना ऐसा लगता है कि कब आ जाएं, एक तरफ नाला है, एक तरफ गंगाजी (वैनगंगा नदी) हैं, कैसे जाएंगे, कैसे आएंगे।
मौके पर गई साई न्यूज की टीम जब वास्तविकता से दो चार हुई तब लगा मानो इन बच्चों को सर्कस में काम करना चाहिए। क्योंकि खतरा सिर्फ नाव पर बैठने के बाद ही शुरू नहीं होता, नदी तक पहुंचने के लिए भी यहां के लोगों को एक खतरनाक फिसलन भरे ढलान को पार करना होता है, जहां कई बच्चे अक्सर गिर जाते हैं यहां फिसल जाते हैं, तभी तो यहां के लोग कहते हैं कि वो अपने बच्चों को भगवान के भरोसे ही पढ़ने के लिए भेजते हैं।
घुड़सार निवासी हेमू सिंह बघेल का कहना था कि उनकी आयु 64 साल की हो रही है, तब से वे ऐसा ही देख रहे हैं, तब से ही बहुत बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है यहां पर, आने-जाने में बच्चों को पढ़ने में और महिलाओं को परेशानी का सामना करना पड़ता है, बारिश ज्यादा हुई तो पूर्व-पश्चिम दोनों तरफ तो वैनगंगा नदी है, एक तरफ नाला है, चारों तरफ से घुड़सार गांव घिरा रहता है, कई बच्चे गिर जाते हैं फिसल जाते हैं, बहुत जोखिम है यहां आने जाने में, यहां लोग बच्चों को पढ़ाने के लिए भगवान भरोसे ही भेजते हैं।
साई न्यूज की टीम, दो फीट चौड़ी और सिर्फ 9-10 इंच ऊंची नाव के सहारे जब नदी के बीचोबीच पहुंचती है और ऊपर से पानी का बहाव तेज हो जाता है तो ऐसा लगता है जैसे सामने यमराज आ गए होंऐसा नहीं है सरकार या प्रशासन को इस बारे में कोई खबर न हो, यहां नाव चलाने के लिए बाकायदा जनपद पंचायत की ओर से ठेका दिया जाता है, सबसे ज्यादा रकम की बोली लगाने वाले ठेकेदार को सालभर नाव चलाने का ठेका दे दिया जाता है, बस इसके बाद प्रशासन को इस बाद से कोई मतलब नहीं कि ठेकेदार कैसी नाव चला रहा है। जब नाव का साइज ऐसा हो तो लाइफ जैकेट की बात करना तो पूरी तरह बेमानी हो जाता है।
नाव चलाने वाले ठेकेदार मनोज चंद्रोल ने बताया कि उन्हें उनकी आयु का इल्म नहीं है पर उनके पिता नाव का काम किया करते थे। उसके बाद उनके भाई ने यह व्यवसाय संभाला और अब वे कर रहे हैं यह व्यवसाय। उन्होंने बताया कि नाव चलाने का सरकारी ठेका होता है, रोज आने जाने वालों से साल का अनाज लेते हैं, वैसे एक तरफ आने का पांच रूपये, आना-जाना 10 रुपये एक बार का लिया जाता है।
आज़ाद भारत में ऐसा खतरनाक मंजर देखना हो तो हरवंश सिंह और कांग्रेस के केवलारी विधानसभा क्षेत्र का दौरा करिए। ऐसे खतरनाक सफर के लिए भी अगर पैसे देने पड़े तो इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी, वैसे साल 2010 में यहां पुल बनाने को मंजूरी मिल गई थी और काम भी शुरू हो गया लेकिन तीन सालों में सिर्फ दो पिलर ही बन पाए, आज़ाद भारत के 66 साल बाद भी इस बुनियादी जरूरत के पूरा न हो पाने की वजह जब प्रशासन से पूछी गई तो उन्होंने फंड की कमी का हवाला देकर पल्ला झाड़ लिया।

66 साल के बारे में क्या स्थितियां रहीं, मैं नहीं कह सकता, लेकिन शासन-प्रशासन के पास फंड की कमी रहती है और प्राथमिकताएं तय करनी पड़ती है कि कहां पहले बनना है, लेकिन जैसा आप बता रहे हैं और ब्रिज कॉर्पोरेशन के एग्ज़िक्यूटिव इंजीनियर से जो बात हुई मेरी, 2010 में पुल बनाने का ठेका हुआ था और काम स्लो चल रहा था तो उन्होंने ठेकेदार को टर्मिनेट कर दिया है, रीटेंडर की कार्यवाही इसमें चल रही है और वो बता रहे हैं कि रीटेंडर एक-दो महीने में हो जाएगा, हमने उनसे बात की है और हम ये चाहते हैं कि अगली बारिश से पहले ये कंप्लीट हो जाए।
भरत यादव, जिला कलेक्टर, सिवनी

वैसे तो सारी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, लेकिन सरकार तक जानकारी पहुंचे ये जवाबदारी वहां के जनप्रतिनिधियों की होती है, कि यहां पर ये दिक्कत या परेशानी है और इसका निराकरण करना चाहिए, मेरा मानना है कि पिछले 60-70 साल से केवलारी में कांग्रेस के जनप्रतिनिधि रहे हैं, कांग्रेस की सरकार रही है, मेरा ऐसा मानना है कि उनके माध्यम से चाहे मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार हो या केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो, वहां पर बात जानी चाहिए थी, और देर से ही सही ये जानकारी पहुंची है और जैसा कि मुझे जानकारी है कि मध्य प्रदेश के ब्रिज कॉर्पोरेशन की वजह से काम स्वीकृत हुआ है।
नरेश दिवाकर, पूर्व विधायक, अध्यक्ष भाजपा सिवनी

जिम्मेदारी तो वर्तमान सरकार की बनती है, क्योंकि पिछले 10 सालों से भारतीय जनता पार्टी का मध्य प्रदेश में शासन रहा है और इन 10 वर्षों में उनको इतना पैसा केंद्र सरकार से विकास के लिए मिल रहा है कि वो अब अपनी गलतियों को कांग्रेस पर थोप नहीं सकते, 10 सालों का कार्यकाल बहुत बड़ा होता है, यहां पिछले दस वर्षों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और जिस तरह के विकास का ढिंढोरा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पीट रहे हैं पूरे देश में, वैसा विकास धरातल पर कहीं दिखता नहीं है।

राजकुमार खुराना, प्रदेश प्रतिनिधि, एमपीसीसी

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