बुधवार, 19 जून 2013

नकली खाद बीज और किसान!

नकली खाद बीज और किसान!

(शरद खरे)

किसान देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है इस बात को आजादी के पहले से नेता कहते आए हैं। किसान असली अन्नदाता है। अगर किसान मेहनत करना छोड़ दे तो लोग भूखे मर जाएं। किसानों की बदहाली भी आजादी के उपरांत किसी से छिपी नहीं है। किसानों की दुर्दशा पर आंसू बहाने की फुर्सत किसी को नहीं है। किसानों के हित की बातें राजनेताओं के भाषणों में तो स्थान पा जाती हैं, पर जब अमली जामा पहनाने की बारी आती है तो मामला ठंडे बस्ते के हवाले हो जाता है।
सिवनी जिले में नकली खाद बीज बिकने की खबरें सालों से सुनी जाती रही हैं। आश्चर्य तो इस बात पर होता है कि प्रदेश सरकार की ओर से नकली खाद बीज रोकने की जवाबदेही जिन सरकारी अमलों पर आहूत होती है उन्हीं के द्वारा नकली खाद बीज प्रदाय किया जाए।
पिछले दिनों छपारा में नकली खाद बीज बिकने की खबर आई वह भी सरकारी सिस्टम से। जैसे ही यह बात सामने आई वैसे ही देश की अर्थ व्यवस्था की रीढ़ किसान की रूह कांप गई। अगर बीज ही नकली और घटिया क्वालिटी का होगा तो भला किसान को उपज का पूरा पैसा कैसे मिल सकेगा?
अधिवक्ता किसान अजय बाबा पाण्डे ने बीज विकास निगम के द्वारा बांटे जा रहे खाद के बोरों में टेग नहीं होना पाया गया। उन्होंने जब इस संबंध में वहां के प्रभारी श्री मांझी से संपर्क किया तो पता चला कि लिखा पढ़ी के लिए किसानों के खाद के बोरों से टैग निकाल लिए गए हैं।
जब अधिवक्ता किसान बाबा पाण्डे ने इस संबंध में गहरी छानबीन की और 44 बैग में टैग नहीं पाए तो उन्होंने पुनः श्री मांझी से कहा कि श्री मांझी के पास महज 12 टैग हैं और बाकी के 44 कहां गए? यह बात सच है कि अगर लिखा पढ़ी के लिए टैग निकाल लिए गए थे तो बाकी के टैग भी वहां होना चाहिए था।
इसी तरह एक अन्य किसान संतोष सिसोदिया ने बीज विकास निगम से जब 8 बोरी खरीदी और उसमें टैग नहीं पाए गए तो उन्होंने इसकी शिकायत की। कैश मेमो में भी बीज का लाट नंबर नहीं डाला गया था। इससे साफ हो जाता है कि कहीं ना कहीं दला में काला नहीं वरन यह तो दाल ही काली है।
शिकायतें यह भी हैं कि एफ वन क्वालिटी की गुणवत्ता वाले बीजों के स्थान पर एफ टू क्वालिटी की गुणवत्ता के बीच किसानों को बांटे जा रहे हैं। किसानों को बीज की क्वालिटी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है पर अधिकारी जो इसके विशेषज्ञ हैं वे तो हर बात से वाकिफ हैं, फिर आखिर इस धांधली को कैसे अंजाम दिया जा रहा है।
कहा जा रहा है कि सालों से किसानों को सरकारी नुमाईंदे छलते आ रहे हैं। किसानों का हक मारा जा रहा है और जिला प्रशासन भी मूक दर्शक बना ही बैठा है। वैसे यह बात संतोषजनक मानी जाएगी कि युवा एवं उर्जावान जिला कलेक्टर भरत यादव द्वारा इस संबंध में स्पष्ट आदेश जारी कर इसे रोकने की बात कही है।
जिला कलेक्टर खुद तो एक एक सौसायटी में जाकर इसे देख नहीं सकते हैं। इसे देखने का काम तो जमीनी स्तर के अधिकारी कर्मचारियों को ही करना है। पर जब सारे कुंए में ही भांग धुली हो तो किया भी क्या जा सकता है। कलेक्टर के अधीन अनुविभागीय दण्डाधिकारी होते हैं।
एसडीएम के पास काम का बोझ होता है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, किन्तु एसडीएम के मातहत तहसीलदार, नायब तहसीलदार, पटवारी आदि तो इस काम को अंजाम दे सकते हैं, पर वे भी नीरो के मानिंद चैन की बंसी बजा रहे हैं मानो कुछ हुआ ही नहीं हो।
सुरसा की तरह बढ़ती मंहगाई के चलते किसानों की कमर पहले से ही टूटी पड़ी है। किसान किसी तरह जोड़ तगाड़ कर अपना घर चलाते हुए पैदावार बढ़ाने का जतन कर रहे हैं। किसानों को पानी के अभाव का सामना करना पड़ता है उपर से दूबरे पर दो असाढ़ की कहावत चरितार्थ कर उन्हें नकली खाद और बीज टिकाया जाए तो उनकी पैदावार कैसे बढ़ेगी?
वैसे भी किसानों का ज्यादातर पैसा साहूकारों की तिजोरियों में ही ब्याज भरते भरते चला जाता है। प्राकृतिक आपदाएं भी किसानों की रीढ़ तोड़कर रख देती हैं। आपदाओं के चलते शासन द्वारा तय की जाने वाली आनावारी भी किसानों के बीच की लागत तक नहीं निकाल पाती है। इन परिस्थितियों में किसान आखिर जाए तो जाए कहां?
एक ओर तो प्रदेश और केंद्र सरकार अपने बड़े बड़े विज्ञापनों में अपने आप को किसान हितैषी बताने से नहीं चूक रहे हैं वहीं दूसरी ओर उनके ही कारिंदे अगर थाली में छेद पर अमादा हैं तो फिर गल्ति तो निश्चित तौर पर निजामों की ही मानी जाएगी, क्योंकि उनके राज में कसावट का अभाव है।
बहरहाल, किसानों के साथ सिवनी जिले में होने वाले इस छल के लिए जवाबदेह अधिकारी कर्मचारियों के खिलाफ जिला प्रशासन समयसीमा में कठोर कार्यवाही करे ताकि आने वाले समय में कोई भी सरकारी नुमाईंदा किसानों को छलने की बात सपने में भी ना सोच सके।

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