सोमवार, 11 अप्रैल 2011

अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू

अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू

लिमटी खरे

सवा अरब की आबादी है जो भारत के भूमण्डल में निवास करती है। सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने भारत वर्ष पर आजादी के उपरांत आधी सदी से ज्यादा राज किया है। दोनों के साथ ही सवा सैकड़ा का आंकड़ा जुड़ा हुआ है। कांग्रेस अब तक देश की जनता को एक ही लाठी से हांकती आई है। जो मन आया वो नीति बना दी, जो चाहा वो शिक्षा के प्रयोग करवा दिए। आजादी के उपरांत राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी के अवसान के बाद आई रिक्तता को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कुछ हद तक भरने का प्रयास किया था। अस्सी के दशक के आरंभ होते ही एक बार फिर देश में असली गांधीवादी नेता के मामले में शून्यता महसूस की जा रही थी। नकली गांधीवादी नेताओं से तो भारत देश पटा पड़ा है।
तीन दशकों के बाद एक बार फिर अन्ना हजारे के रूप मंे देश को एक गांधी वादी नेता मिला है जो निस्वार्थ भाव से देश के लिए काम करने को राजी है, सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि अन्ना के आव्हान पर समूचे देश ने अहिंसक तरीके से पूरे जोश के साथ उनका साथ दिया। खुफिया एजेंसियों के प्रतिवेदन ने कांग्रेस के हाथ पैर फुला दिए, और सरकार को अंततः इक्कीसवीं सदी के इस गांधी के सामने घुटने टेकने ही पड़े। हो सकता है कि कांग्रेस के वर्तमान स्वरूप और आदतों के चलते वह अन्ना के साथ ही साथ देश के सामने घुटने टेकने का प्रहसन कर फौरी तोर पर इससे बचना चाह रही हो किन्तु कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस अन्ना की एक आवाज पर देश के युवाओं ने उनका साथ दिया है, वे अगर कांग्रेस धोखा करती है तो आगे किस स्तर पर जा सकते हैं।
बहरहाल आधी लंगोटी पहनकर सादगी पसंद किन्तु कठिन अनुशासन में जीवन यापन करने वाले महात्मा गांधी ने उन ब्रितानियों को देश से खदेड़ दिया था, जिनका साम्राज्य और मिल्कियत इतनी थी कि उनका सूरज कभी अस्त ही नहीं होता था। एक देश में अगर सूरज अस्त हो जाता तो दूसरे देश में उसका उदय होता था। इतने ताकतवर थे गोरी चमड़ी वाले। बेरिस्टर गांधी ने सब कुछ तजकर सादगी के साथ देश की सेवा का प्रण लिया और उसे मरते दम तक निभाया।
महात्मा गांधी ने अहिंसा को ही अस्त्र बनाकर अपनी पूरी लड़ाई लड़ी। बापू के आव्हान पर अनेक बार जेल भरो आंदोलन का आगाज हुआ। 1918 में चंपारण सत्याग्रह के दौरान ब्रितानी हुकूमत ने महात्मा गांधी के आंदोलन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। तब बापू ने आंदोलन का एक्सीलयेटर बढ़ा दिया था। जैसे ही देशव्यापी समर्थन बापू को मिला वैसे ही ब्रितानी हुकूमत उसी तरह घबराई जिस तरह अन्ना हाजरे के आंदोलन के बाद वर्तमान में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार घबराई है।
उस वक्त के सियासतदारों ने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को हिंसा फैलाने के आरोप में पकड़ लिया। जैसे ही यह खबर फैली वैसे ही भारत के हर नागरिक का तन बदन सुलग गया। बापू के समर्थन में अनेकों समर्थकों ने जेल जाने की इच्छा व्यक्त की। जेल के बाहर होने वाले प्रदर्शन ने गोरों को हिलाकर रख दिया। इसके अलावा 1922 में चौरी चौरा में तनाव को देखकर ब्रितानी सरकार बहुत ही भयाक्रांत थी। निर्मम गोरों ने बापू को दस मार्च 1922 को पकड़कर जेल में डाल दिया। 1930 में कमोबेश यही स्थिति नमक सत्याग्रह के दौरान निर्मित हुई थी।
आजादी के उपरांत बापू की हत्या के बाद भारत में कुछ साल तो सब कुछ ठीक ठाक चला किन्तु इसके उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की सराउंडिंग (इर्द गिर्द के लोग) ने उन्हें अंधेरे में रखकर अत्त मचाना आरंभ कर दिया। प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी की जानकारी के बिना ही अनेक फैसले लिए जाकर उन्हें अमली जामा भी पहनाया जाने लगा। देश में अराजकता की स्थिति बन गई थी।
इसी दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान जननायक जय प्रकाश नारायण ने एक आंदोलन की रूपरेखा तैयार की और 25 जून 1975 को इसे मूर्त रूप दिया। जेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग कर डाली। इंदिरा गांधी के आंख नाक कान बने लोगों ने रातों रात जेपी सहित अनेक लोगों को बंद कर जेल में डाल दिया। यह जनता का रोष और असंतोष था कि आजादी के बाद सबसे ताकतवर कांग्रेस पार्टी को सत्ता छोड़कर विपक्ष के पटियों पर बैठना पड़ा था।
अन्ना हजारे ने यह साबित कर दिया है कि भारतवासी एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ कभी भी खड़े हो सकते हैं। भारत के हर नागरिक ने भी यह दिखा दिया है कि भारतवासी सहिष्णु, सहनशील शांत और सोम्य अवश्य हैं, किन्तु वे नपुंसक कतई नहीं हैं। अन्ना हजारे के इस कदम ने हर भारतवासी के दिल में बसने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण की यांदें ताजा कर दी हैं।
देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को अब भविष्य का रोड़मैप तय करना होगा, जिसमें घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, अनाचार, धोखेबाजी आदि को स्थान न दिया जा सके। अन्ना हजारे की सादगी पर कोई भी मर मिटे। जिस सादगी के साथ उन्होने अनशन कर राजनेताओं को इससे दूर रखा और सरकार को झुकने पर मजबूर किया अन्ना की उस शैली को देखकर बरबस ही मुंह से फूट पड़ता है -‘‘अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू।‘‘

सवा अरब की आबादी है जो भारत के भूमण्डल में निवास करती है। सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस जिसने भारत वर्ष पर आजादी के उपरांत आधी सदी से ज्यादा राज किया है। दोनों के साथ ही सवा सैकड़ा का आंकड़ा जुड़ा हुआ है। कांग्रेस अब तक देश की जनता को एक ही लाठी से हांकती आई है। जो मन आया वो नीति बना दी, जो चाहा वो शिक्षा के प्रयोग करवा दिए। आजादी के उपरांत राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी के अवसान के बाद आई रिक्तता को लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कुछ हद तक भरने का प्रयास किया था। अस्सी के दशक के आरंभ होते ही एक बार फिर देश में असली गांधीवादी नेता के मामले में शून्यता महसूस की जा रही थी। नकली गांधीवादी नेताओं से तो भारत देश पटा पड़ा है।
तीन दशकों के बाद एक बार फिर अन्ना हजारे के रूप मंे देश को एक गांधी वादी नेता मिला है जो निस्वार्थ भाव से देश के लिए काम करने को राजी है, सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि अन्ना के आव्हान पर समूचे देश ने अहिंसक तरीके से पूरे जोश के साथ उनका साथ दिया। खुफिया एजेंसियों के प्रतिवेदन ने कांग्रेस के हाथ पैर फुला दिए, और सरकार को अंततः इक्कीसवीं सदी के इस गांधी के सामने घुटने टेकने ही पड़े। हो सकता है कि कांग्रेस के वर्तमान स्वरूप और आदतों के चलते वह अन्ना के साथ ही साथ देश के सामने घुटने टेकने का प्रहसन कर फौरी तोर पर इससे बचना चाह रही हो किन्तु कांग्रेस को यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस अन्ना की एक आवाज पर देश के युवाओं ने उनका साथ दिया है, वे अगर कांग्रेस धोखा करती है तो आगे किस स्तर पर जा सकते हैं।
बहरहाल आधी लंगोटी पहनकर सादगी पसंद किन्तु कठिन अनुशासन में जीवन यापन करने वाले महात्मा गांधी ने उन ब्रितानियों को देश से खदेड़ दिया था, जिनका साम्राज्य और मिल्कियत इतनी थी कि उनका सूरज कभी अस्त ही नहीं होता था। एक देश में अगर सूरज अस्त हो जाता तो दूसरे देश में उसका उदय होता था। इतने ताकतवर थे गोरी चमड़ी वाले। बेरिस्टर गांधी ने सब कुछ तजकर सादगी के साथ देश की सेवा का प्रण लिया और उसे मरते दम तक निभाया।
महात्मा गांधी ने अहिंसा को ही अस्त्र बनाकर अपनी पूरी लड़ाई लड़ी। बापू के आव्हान पर अनेक बार जेल भरो आंदोलन का आगाज हुआ। 1918 में चंपारण सत्याग्रह के दौरान ब्रितानी हुकूमत ने महात्मा गांधी के आंदोलन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। तब बापू ने आंदोलन का एक्सीलयेटर बढ़ा दिया था। जैसे ही देशव्यापी समर्थन बापू को मिला वैसे ही ब्रितानी हुकूमत उसी तरह घबराई जिस तरह अन्ना हाजरे के आंदोलन के बाद वर्तमान में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार घबराई है।
उस वक्त के सियासतदारों ने अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी को हिंसा फैलाने के आरोप में पकड़ लिया। जैसे ही यह खबर फैली वैसे ही भारत के हर नागरिक का तन बदन सुलग गया। बापू के समर्थन में अनेकों समर्थकों ने जेल जाने की इच्छा व्यक्त की। जेल के बाहर होने वाले प्रदर्शन ने गोरों को हिलाकर रख दिया। इसके अलावा 1922 में चौरी चौरा में तनाव को देखकर ब्रितानी सरकार बहुत ही भयाक्रांत थी। निर्मम गोरों ने बापू को दस मार्च 1922 को पकड़कर जेल में डाल दिया। 1930 में कमोबेश यही स्थिति नमक सत्याग्रह के दौरान निर्मित हुई थी।
आजादी के उपरांत बापू की हत्या के बाद भारत में कुछ साल तो सब कुछ ठीक ठाक चला किन्तु इसके उपरांत तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी की सराउंडिंग (इर्द गिर्द के लोग) ने उन्हें अंधेरे में रखकर अत्त मचाना आरंभ कर दिया। प्रियदर्शनी इंदिरा गांधी की जानकारी के बिना ही अनेक फैसले लिए जाकर उन्हें अमली जामा भी पहनाया जाने लगा। देश में अराजकता की स्थिति बन गई थी।
इसी दौरान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान जननायक जय प्रकाश नारायण ने एक आंदोलन की रूपरेखा तैयार की और 25 जून 1975 को इसे मूर्त रूप दिया। जेपी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से त्यागपत्र की मांग कर डाली। इंदिरा गांधी के आंख नाक कान बने लोगों ने रातों रात जेपी सहित अनेक लोगों को बंद कर जेल में डाल दिया। यह जनता का रोष और असंतोष था कि आजादी के बाद सबसे ताकतवर कांग्रेस पार्टी को सत्ता छोड़कर विपक्ष के पटियों पर बैठना पड़ा था।
अन्ना हजारे ने यह साबित कर दिया है कि भारतवासी एकजुट होकर अन्याय के खिलाफ कभी भी खड़े हो सकते हैं। भारत के हर नागरिक ने भी यह दिखा दिया है कि भारतवासी सहिष्णु, सहनशील शांत और सोम्य अवश्य हैं, किन्तु वे नपुंसक कतई नहीं हैं। अन्ना हजारे के इस कदम ने हर भारतवासी के दिल में बसने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और लोकनायक जय प्रकाश नारायण की यांदें ताजा कर दी हैं।
देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली कांग्रेस को अब भविष्य का रोड़मैप तय करना होगा, जिसमें घपले, घोटाले, भ्रष्टाचार, अनाचार, धोखेबाजी आदि को स्थान न दिया जा सके। अन्ना हजारे की सादगी पर कोई भी मर मिटे। जिस सादगी के साथ उन्होने अनशन कर राजनेताओं को इससे दूर रखा और सरकार को झुकने पर मजबूर किया अन्ना की उस शैली को देखकर बरबस ही मुंह से फूट पड़ता है -‘‘अन्ना, आई मस्ट सैल्यूट यू।‘‘


भ्रष्टों को अन्ना के अनशन से होना चाहिए शर्मसार

भ्रष्टों को अन्ना के अनशन से होना चाहिए शर्मसार
लिमटी खरे

अमेरिकी मूल के गोरे लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड की किताब में महात्मा गांधी पर आपत्तिजनक टिप्पणियां की गई हैं। कहा गया है कि बापू 1908 में चार बच्चों को जन्म देने के बाद कस्तूरबा गांधी से प्रथक होकर कालेनबाश के साथ रहने चले गए थे। इस किताब में अनेक पत्रों का हवाला देकर बापू के बारे में अश्लील और अमर्यादित टिप्पणियां की गई हैं कि वे समलेंगिक या गे थे। इस किताब में कहा गया है कि बापू समलैंगिक थे। आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे करने वाले बापू का सरेआम करने के बावजूद भी एक सप्ताह तक कांग्रेस ने इसकी सुध नहीं ली। बापू को समलेंगिक बताना वाकई कांग्रेस को छोड़कर समूचे भारत के लिए शर्म की बात है। अब कांग्रेसनीत केंद्र सरकार यह कह रही है कि इस किताब पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है।
अपनी शहादत के 63 साल बाद भी आज गांधी समूचे विश्व में प्रासंगिक बने हुए हैं। समूची दुनिया उस महात्मा की कायल है जिसने आधी धोती पहनकर ब्रितानियों के दांत खट्टे कर दिए थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि उनका सूरज नहीं डूबता है। इसका अर्थ था कि उनका साम्राज्य इतना फैला हुआ था कि एक देश में सूरज डूबता था तो दूसरे देश में उग जाता था।
गांधीवादी नेता अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोल को जबर्दस्त जनसमर्थन मिलने पर किसी को आश्चर्य नहीं है। धर्मगुरूओं का यह कहना ही अपने आप में पर्याप्त है कि कांग्रेस को शर्म आनी चाहिए कि आजाद और लोकतांत्रिक देश में उसके नेतृत्व वाली सरकार के रहते हुए एक बुजुर्ग गांधीवादी को भ्रष्टाचार मिटाने के लिए अमरण अनशन करने पर मजबूर होना पड़ रहा है।
बापू के आदर्शों को आज भी समूची दुनिया अंगीकार किए हुए है, विशेषकर उनके अंहिसा आंदोलन को। गांधीवादी तरीके से अन्ना हजारे ने भी सरकार को कटघरे में खड़ा कर ही दिया है। कुछ दिनों पहले अमेरिका के डाक्टूमेंट्री फिल्म निर्माता जेम्स ओटिस ने बापू की कुछ अनमोल चीजों की नीलामी करने की घोषणा की थी। इस घोषणा के बाद भारत सरकार को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद आई और आनन फानन उसने इस चीजों को वापस लाने की पहल आरंभ की।
कितने आश्चर्य की बात है कि ओटिस ने बापू के चश्मे, जेब वाली घड़ी, चमड़े की चप्पलें, कटोरी, प्लेट आदि को भारत को सौंपने के एवज में एक मांग रखी थी। ओटिस का कहना था कि अगर भारत सरकार अपने बजट का पांच प्रतिशत हिस्सा गरीबी उन्नमूलन पर खर्च करे तो वे इन सामग्रीयों को भारत को लौटा सकते हैं।
ओटिस की इस मांग को दो नज़रियांे से देखा जा सकता है। अव्वल तो यह कि भारत सरकार क्या वाकई देश के गरीबों के प्रति फिकरमंद नहीं है? और क्या वह गरीबी उन्नमूलन की दिशा में कोई पहल नहीं कर रही है। अगर एसा है तो भारत सरकार को चाहिए कि वह हर साल अपने बजट के उस हिस्से को सार्वजनिक कर ओटिस को बताए कि उनकी मांग के पहले ही भारत सरकार इस दिशा में कार्यरत है। वस्तुतः सरकार की ओर से इस तरह का जवाब न आना साफ दर्शाता है कि ओटिस की मांग में दम था।
वहीं दूसरी ओर ओटिस को इस तरह की मांग करने के पहले इस बात का जवाब अवश्य ही देना चाहिए था कि उनके द्वारा एकत्र की गईं महात्मा गांधी की इन सारी वस्तुओं को किसी उचित संग्रहालय में महफूज रखने के स्थान पर इनकी नीलामी करने की उन्हंे क्या ज़रूरत आन पड़ी।
ज्ञातव्य होगा कि 1996 में एक ब्रितानी फर्म द्वारा महात्मा गांधी की हस्तलिखित पुस्तकों की नीलामी पर मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाई गई थी। यह पहल भी 1929 में गठित किए गए नवजीवन ट्रस्ट द्वारा ही की गई थी। सवाल तो यह उठता है कि महात्मा गांधी द्वारा जब अपनी वसीयत में साफ तौर पर लिखा था कि उनकी हर चीज, प्रकाशित या अप्रकाशित आलेख रचनाएं उनके बाद नवजीवन ट्रस्ट की संपत्ति होंगे, के बाद उनसे जुड़ी वस्तुएं सात समुंदर पार कर अमेरिका और इंग्लेंड कैसे पहुंच गईं?
जिस चश्मे से उन्होंने आजाद भारत की कल्पना को साकार होते देखा, जिस चप्पल से उन्होंने दांडी जैसा मार्च किया। जिस प्लेट और कटोरी में उन्होंने दो वक्त भोजन पाया उनकी नीलामी होना निश्चित रूप से बापू के विचारों और उनकी भावनाओं का सरासर अपमान था।
समूचे विश्व के लोगों के दिलों पर राज करने वाले अघोषित राजा जिन्हें हिन्दुस्तान के लोग राष्ट्र का पिता मानते हैं, उनकी विरासत को संजोकर रखना भारत सरकार की जिम्मेवारी बनती है। इसके साथ ही साथ महात्मा गांधी के दिखाए पथ और उनके आचार विचार को अंगीकार करना हर भारतीय का नैतिक कर्तव्य होना चाहिए।
महात्मा गांधी के नाम से प्रचलित गांधी टोपी को ही अगर लिया जाए तो अब उंगलियों में गिनने योग्य राजनेता भी नहीं बचे होंगे जो इस टोपी का नियमित प्रयोग करते होंगे। अपनी हेयर स्टाईल के माध्यम से आकर्षक दिखने की चाहत मंे राजनेताआंे ने भी इस टोपी को त्याग दिया है। यहां तक कि कांग्रेस की नजर में भविष्य के युवराज राहुल गांधी भी अवसर विशेष पर ही फोटो सेशन के लिए ही गांधी टोपी धारण किया करते हैं।
आधी सदी से अधिक देश पर राज करने वाली अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अनुषांगिक संगठन सेवादल की पारंपरिक वेशभूषा में गांधी टोपी का समावेश किया गया है। विडम्बना ही कही जाएगी कि सेवादल में सलामी लेने के दौरान ही कांग्रेस के बड़े नेताओं द्वारा इस टोपी का प्रयोग किया जाता है। सलामी के बाद यह टोपी कहां चली जाती है इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं होता है।
इसके साथ ही गांधी वादी आज भी खादी का इस्तेमाल करते हैं, मगर असली गांधीवादी। आज हमारे देश के 99 फीसदी राजनेताओं द्वारा खादी का पूरी तरह परित्याग कर दिया गया है, जिसके चलते हाथकरघा उद्योग की कमर टूट चुकी है। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि गांधी जी की विरासत को तो संजोकर रखा ही जाए, साथ ही उनके विचारों को संजोना बहुत जरूरी है। बापू की चीजें तो बेशक वापस आ जाएंगी, किन्तु उनके बताए मार्ग का क्या होगा?
दुनिया के चौधरी अमेरिका का रहवासी लेखक जोसेफ लेलीवेल्ड द्वारा बापू को सरेआम समलेंगिक की श्रेणी में खड़ा किया जा रहा है और उनके नाम पर सत्ता की मलाई चखने वाली कांग्रेस द्वारा अपनी जुबान बंद रखी हुई है। कहा तो यह भी जा रहा है कि कांग्रेस की कमान इटली मूल की सोनिया मानियो उर्फ सोनिया गांधी के हाथों में हैं जिन्हें गांधी के नाम का प्रयोग तो आता है पर गांधी के बलिदान और उनकी शहादत से कोई लेना देना नहीं है।
देश के वर्तमान हालातों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि देश के राजनेताओं ने अपने निहित स्वार्थों के चलते राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आर्दशों को भी नीलाम कर दिया है। आज के परिवेश में राजनीति में बापू के सिद्धांत और आदर्शों का टोटा साफ तौर पर परिलक्षित हो रहा है। ओटिस की नीलामी करने की घोषणा हिन्दुस्तान के राजनेताओं के लिए एक कटाक्ष ही कही जा सकती है, कि भारत गांधी जी के सिद्धांतों पर चलना सीखे।
 

0 वीरप्पा मोईली से साधा हंसराज विरोधियों को


सक्रिय हुए भारद्वाज विरोधी

(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। मध्य प्रदेश कोटे से राज्य सभा में पहुंचने वाले और फिर कभी मुडकर मध्य प्रदेश का रूख नहीं करने वाले पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज के विरोधी लामबंद होना आरंभ हो गए हैं। कर्नाटक के राज्यपाल भारद्वाज के केंद्र में वापसी की सुगबुगाहटों के बाद अब एक बार फिर उनकी खुलकर मुखालफत होने लगी है।
पूर्व कानून मंत्री हंसराज भारद्वाज की बार बार दिल्ली यात्रा से अनुमान लगाया जा रहा था कि वे कर्नाटक के राजभवन से निकलकर पुनः सक्रिय राजनीति में आना चाह रहे हैं। इसी बीच कांग्रेस सुप्रीमो श्रीमति सोनिया गांधी की वर्तमान कानून मंत्री वीरप्पा माईली के प्रति नाराजगी की खबरों के चलते भारद्वाज ने एक बार फिर कानून मंत्रालय पर काबिज होने की जुगत लगाना आरंभ कर दिया था।
वैसे तो मोईली और भारद्वाज दोनों ही के प्रति सोनिया गांधी का रूख बहुत सकारात्मक नहीं है फिर भी अब भारद्वाज विरोधियो ंने उनके मार्ग में शूल बोना आरंभ कर दिया है। बताया जाता है कि बोफोर्स मामले में क्लोजर रिपोर्ट के लीक होने से सोनिया गांधी खासी खफा थीं। इस बारे में उन्होंने अपने जासूसों को पतासाजी करने को कहा था कि इसके पीछे आखिर कौन सा चेहरा था।
दस जनपथ के सूत्रों का कहना है कि भारद्वाज विरोधियों ने सोनिया गांधी को बताया है कि बोफोर्स मामले में क्वात्रोच्चि को लेकर ट्रिब्यूनल आर्डर जारी किया गया था जिस पर कोहराम मचा, और यह ट्रिब्यूनल कानून मंत्रालय के अधीन आता है, एवं जब यह मामला चरम पर था तब हंसराज भारद्वाज ही कानून मंत्री थे।
कहा जा रहा है कि कानून मंत्री वीरप्पा माईली के गुर्गों ने इशारों ही इशारों में सोनिया गांधी को यह समझा दिया है कि पिछले दिनों बोफोर्स मामले को लेकर कांग्रेस और केंद्र सरकार की जो भद्द पिटी है उस रिपोर्ट को हंसराज भारद्वाज द्वारा ही लीक किया गया है।

राजनैतिक दलों के एजेंडे से बाहर हुए विद्यार्थी!


राजनैतिक दलों के एजेंडे से बाहर हुए विद्यार्थी!
लिमटी खरे

देश में जब भी किसी भी चुनाव की रणभेरी बजती है, वैसे ही राजनैतिक दल अपने अपने एजेंडे सेट करने में लग जाते हैं। कोई मंहगाई को तो कोई बेरोजगारी को टारगेट करता है। देश के अंतिम छोर के व्यक्ति की पूछ परख के लिए घोषणापत्र तैयार किए जाते हैं। मतदाताओं को लुभाने के उपरांत इन मेनीफेस्टो को खोमचे वालों को बेच दिया जाता है।
पिछले कई सालों से तैयार हो रहे मेनीफेस्टो में एक बात खुलकर सामने आई है कि चाहे आधी सदी से अधिक राज करने वाली कांग्रेस हो या दो सीटों के सहारे आगे बढ़कर देश की सबसे बड़ी पंचायत पर कब्जा करने वाली भारतीय जनता पार्टी, किसी भी राजनैतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में स्कूली बच्चों के लिए कुछ भी खास नहीं रखा है।
कितने आश्चर्य की बात है कि देश के नौनिहाल जब अट्ठारह की उमर को पाते हैं, तो उनके मत की भी इन्हीं राजनेताओं को बुरी तरह दरकार होती है, किन्तु धूल में अटा बचपन सहलाने की फुर्सत किसी भी राजनेता को नहीं है। हमें यह कहने में किसी तरह का संकोच अनुभव नहीं हो रहा है कि चूंकि इन बच्चों को वोट देने का अधिकार नहीं है, अतः राजनेताओं ने इन पर नजरें इनायत करना मुनासिब नहीं समझा है।
इस तरह की राजनैतिक आपराधिक अनदेखी के चलते देश भर के स्कूल प्रशासन ने भी बच्चों की सुरक्षा के इंतजामात से अपने हाथ खींच रखे हैं। देश भर में कमोबेश हर निजी स्कूल आज के समय में एक उद्योग में ही तब्दील होकर रहा गया है। हर एक निजी स्कूल में ढांचागत विकास के नाम पर बिल्डिंग, लाईब्रेरी, गेम्स, कंप्यूटर, चिकितसा, सोशल एक्टीविटीज आदि जाने कितनी मदों में मोटी फीस वसूली जाती है।
एक तरफ शासन प्रशासन जहां ध्रतराष्ट्र की भूमिका में है तो स्कूल प्रशासन दुर्दांत अपराधी दाउद की भूमिका में अविभावकांे से फीस के नाम पर चैथ वसूल कर रहा है। आश्चर्य तो तब होता है, जब इन शालाओं में बुनियादी सुविधाएं ही नदारत मिलती हैं। देश के स्कूलों का अगर सर्वे करवा लिया जाए तो पंचानवे फीसदी स्कूलों में अग्निशमन के उपाय नदारत ही मिलेंगे।
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में ही विद्यार्थियों के साथ खिलवाड़ के अनेकों उदहारण रोजाना ही देखने सुनने को मिला करते हैं। संवेदनाएं खो चुके राजनैतिक दलों के कारिंदों को भी इस सबसे कोई असर नहीं होता। स्कूल संचालकों, राजनेताओं, प्रशासनिक अधिकारियों और मीडिया की गठजोड़ के चलते अविभावक सरेआम लुटने पर मजबूर हैं, किन्तु उसका रूदन सुनने की किसी को भी फुर्सत नहीं है।
अगर किसी पालक द्वारा शाला प्रबंधन के खिलाफ आवाज उठाने की हिमाकत की जाती है तो उसकी गाज उसके बच्चे पर ही गिरती है। एक नहीं अनेकों उद्हारण एसे हैं जिनमें बच्चों का रिजल्ट ही इसके चलते रोक दिया जाता रहा है। इन सब पर पहरेदारी के लिए पाबंद शिक्षा विभाग के अधिकारी हाथ बांधे इन निजी शालाओं के प्रबंधन की सेवा टहल ही करते नजर आते हैं।
याद पड़ता है, सत्तर के दशक के पूर्वार्ध तक प्रत्येक शाला में स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन किया जाता था। हर बच्चे का स्वास्थ्य परीक्षण करवाना शाला प्रशासन की नैतिक जिम्मेदारी हुआ करता था। शिक्षक भी इस पुनीत कार्य में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया करते थे। उस वक्त चूंकि हर जिले में पदस्थ जिलाधिकारी (डिस्ट्रिक्ट मेजिस्ट्रेट) व्यक्तिगत रूचि लेकर इस तरह के शिविर लगाना सुनिश्चित किया करते थे। उस वक्त के जिला शिक्षा अधिकारी (डीईओ) भी व्यक्तिगत तौर पर सरकारी और निजी शालाओं में जाकर बच्चों का स्वास्थ्य परीक्षण करवाया करा करते थे। आज इस तरह के स्कूल निश्चित तौर पर अपवाद स्वरूप ही अस्तित्व में होंगे जहां विद्यार्थियों के बीमार पड़ने पर समुचित प्राथमिक चिकित्सा मुहैया हो सके।
कितने आश्चर्य की बात है कि आज जो शिक्षक अपना आधा सा दिन अपनी कक्षा के बच्चों के साथ बिता देते हैं, उन्हें अपने छात्र की बीमारी या तासीर के बारे में भी पता नहीं होता। मतलब साफ है, आज के युग में शिक्षक व्यवसायिक होते जा रहे हैं। आज कितने एसे स्कूल हैं, जिन में पढ़ने वालों की बीमारी से संबंधित रिकार्ड रखा जा रहा होगा?
स्कूल में दाखिले के दौरान तो पालकों को आकर्षित करने की गरज से शाला प्रबंधन द्वारा लंबे चैड़े फार्म भरवाए जाते हंै, जिनमें ब्लड गु्रप से लेकर आई साईट और जाने क्या क्या जानकारियों का समावेश रहता है। सवाल इस बात का है कि इस रिकार्ड को क्या अपडेट रखा जाता है? जाहिर है इसका उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा।
सरकारी स्कूलों के अध्यापकों तो नसबंदी, जनगणना, मतदाता सूची, अंधत्व निवारण आदि की बेगार में लगा दिया जाता है, जिससे वे अपने मूल कार्य से इतर इन कामों को करने में जुट जाते हैं। इसका सीधा सीधा प्रभाव देश के भविष्य बनने वाले बच्चों पर पड़ना स्वाभाविक ही है।
उचित मार्गदर्शन और कड़े अनुशासन के डंडे के अभाव में निजी तौर पर संचालित होने वाले शिक्षण संस्थान (शिक्षा की दुकानें) अब पूरी तरह से मनमानी पर उतर आई हैं। सरकारी स्कूलों में गिरते शिक्षा के स्तर से चिंतित पालकों की मजबूरी है कि वे अपने बच्चों को सरकारी के बजाए निजी स्कूलों में अध्ययन के लिए भेजें फिर ख्याति लब्ध अध्यापकों के पास ट्यूशन के लिए भी भेजें।
शक्षण संस्थानों द्वारा हर माह ली जाने वाली मोटी फीस में अन्य मदों के अलावा ट्यूशन फीस भी ली जाती है, इसके बावजूद भी शिक्षकों द्वारा पढ़ाई जाने वाली ट्यूशन और उनके घरों के सामने लगने वाली वाहनों की भीड़ आखिर क्या साबित करती है? कितने आश्चर्य की बात है कि इसके बावजूद भी तो कोई सांसद ही कोई विधायक इसके खिलाफ विधानसभा या लोकसभा में प्रश्न लगाने का साहस जुटा पाता है।
दरअसल हमारा तंत्र चाहे वह सरकारी हो या मंहगे अथवा मध्यम या सस्ते स्कूल सभी संवेदनहीन हो चुके हैं। मोटी फीस वसूलना इन स्कूलों का प्रमुख शगल बनकर रह गया है। आज तो हर मोड पर एक नर्सरी से प्राथमिक स्कूल खुला मिल जाता है। कुछ केंद्रीय विद्यालयों में तो प्राचार्यों की तानाशाही के चलते बच्चे मुख्य द्वार से लगभग आधा किलोमीटर दूर तक दस किलो का बस्ता लादकर पैदल चलते जाते हैं, क्योंकि प्राचार्यों को परिसर में आटो या रिक्शे का आना पसंद नहीं है।
एक ही शाला में अध्ययन करने वाला छात्र जब अगली कक्षा में जाता है तब उससे दोबारा एडमीशन फीस लेना क्या न्यायसंगत है? क्या किसी दुकान विशेष से स्कूल की गणवेश या किताब खरीदना उचित है? अगर देखा जाए तो हर शाला का अपना कोर्स और विशेष प्रकाशन या लेखकों की किताबें नियत हैं जो हर शहर में दुकान विशेष पर ही मिलती हैं। राज्य या केंद्र सरकार अगर सर्वे करवा ले तो उसे इस मामले में अरबों रूपयों से खेलने वाले रेकट का पता चल जाएगा।
अगर देखा जाए तो देश का कमोबेश हर स्कूल मानवाधिकार का सीधा सीधा उल्लंघन करता पाया जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि देश के भाग्यविधाता राजनेताओं को इस ओर देखने की महती आवश्यक्ता है, क्योंकि उनके वारिसान भी इन्हीं में से किसी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे या करने वाले होंगे।

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