रविवार, 9 जनवरी 2011

सुमित शर्मा से प्रेरणा लें आईएएस अधिकारी

सुमित शर्मा से प्रेरणा लें आईएएस अधिकारी

(लिमटी खरे)

कहते हैं देश को चलाने वाले भारतीय प्रशासिनक सेवा (आईएएस) अधिकारी होते हैं, इन नौकरशाहों के आगे राजनेताओं के साथ ही साथ अन्य अखिल भारतीय सेवा के अधिकारी बौने ही साबित होते हैं। आईएएस जब किसी जिले का जिलाधिकारी यानी कलेक्टर बनकर पदस्थ होता है, तब उसका रूतबा कुछ और होता है। वह जिले का अघोषित मालिक होता है। जिलाधिकारी जिले में जिला दण्डाधिकारी के बतौर भी काम करता है।
सत्तर के दशक तक की समाप्ति तक अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को बड़े ही सम्मान के साथ देखा जाता था। उस वक्त अधिकारियों को भय होता था कि अगर उन्होंने किसी से भी रिश्वत ली तो समाज उन्हें हेय दृष्टि से देखेगा। शनैः शनैः नौकरशाह, मीडिया और राजनेताओं के गठजोड़ ने समूची व्यवस्था को ही पंगु बना डाला है।
पिछले तीन दशकों में देश में अखिल भारतीय स्तर के चुनिंदा अधिकारी ही हैं, जिनके नाम पर आज भी लोग गर्व करते हैं। आज भी इन नौकरशाहों के साथ काम करने वाले सेवानिवृत या सेवानिवृति की कगार पर पहुंचने वाले बाबुओं को अपने संस्मरण सुनाने में काफी हर्ष महसूस होता है।
याद पड़ता है मध्य प्रदेश में भी एक आईएएस अधिकारी हुए हैं, जिनका नाम था, मोहम्मद पाशा राजन। एम.पी.राजन के बारे में कहा जाता था कि वे शासन की सेवा के एवज में महज एक रूपए ही वेतन लिया करते थे। उनकी ईमानदारी की कस्में खाई जातीं थीं, किन्तु जब वे सेवानिवृति के मुहाने पर पहुंचे तो उनका दामन इतना दागदार निकला कि कसमें खाने वालों के मुंह का स्वाद ही कसैला हो गया।
राजस्थान संवर्ग के युवा आईएएस अधिकारी डॉ.सुमित शर्मा ने इस भ्रष्टाचारी जमाने में एक मिसाल कायम की है। शर्मा ने जता दिया है कि कलेक्टर वाकई जिले का मालक नहीं पालक होता है। सच है कि अगर जिले का कोई आला अधिकारी पूरी ईमानदारी, कार्यकुशलता, संवेदनशीलता, मेहनत और लगन के साथ काम करे तो वह जिले का कायापलट कर सकता है।
अमूमन देखा गया है कि जब भी कोई आला अधिकारी किसी जिले में पदस्थ होता है, तो वह दिखावे के लिए स्वांग रच लेता है कि उस जिले के निवासी उसके परिवार का हिस्सा है। दरअसल वह अधिकारी उस जिले में जाकर अपनी तैनाती के समय को सफलता के साथ काटना चाहता है। वह नहीं चाहता कि किसी भी तरह का कोई पंगा हो जिसकी आंच उसके गोपनीय प्रतिवेदन (सीआर) पर पड़े। यही कारण है कि आज जिलों में पदस्थ अधिकारी अपने काम को ईमानदारी के साथ करने के बजाए समय काटने में ही ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। अनेक एसे भी अधिकारी हैं, जो दूसरी या तीसरी बार उस जिले में पदस्थ होते हैं, उन अधिकारियों का अवश्य ही जिले के साथ लगाव समझा जा सकता है, वे जिले के विकास के प्रति कुछ ज्यादा फिकरमंद हुआ करते हैं।
होता यह है कि अगर कोई अधिकारी कर्मठता का परिचय देना आरंभ करता है तो स्थानीय राजनेता, विधायक, सांसद उसे सही रास्ते पर चलने नहीं देते। जरा जरा सी बात पर शिकायतों के माध्यम से उस अधिकारी के सर पर निलंबन या स्थानांतरण की तलवार लटकना आम बात है। अगर किसी अफसर ने जनसेवक की सही गलत बात नहीं मानी बस हो जाती हैं उनकी नजरें तिरछी। यही कारण है कि अफसरों ने भी अपने आप को राजनेताओं की मंशा के अनुरूप ही ढालने में भलाई समझी है।
बहरहाल राजस्थान के नागौर जिले में जो भी घटित हुआ है, वह निस्संदेह ही देश के सवा छः सौ जिलों के मालिकों के लिए नजीर बन सकता है। नागौर के जिला कलेक्टर डॉ.सुमित शर्मा का तबादला कर दिया गया, फिर क्या था जिले की जनता सड़कों पर उतर आई। कहा जा रहा है कि उन्होंने एक पहुंच संपन्न इंडस्ट्रीयलिस्ट का शराब कारखाना बंद करवा दिया था, जिसका भोगमान उन्हें भुगतना पड़ा। डॉ.शर्मा के साथ यह पहली मर्तबा नहीं हुआ, इसके पहले जब वे चित्तोड़गढ़ में पदस्थ थे, तब भी उनके स्थानांतरण पर जनता ने सड़कों को थाम लिया था। अमूमन इस तरह की बातें या दृश्य हिन्दुस्तानी सिनेमा में ही देखने को मिला करते हैं, वास्तविकता में यह देखने को नहीं मिलता है। पेशे से पशु चिकित्सक रहे डॉ. शर्मा ने अपने कर्तव्यों के साथ ही साथ जिले में रहते हुए नियमित जनसुनवाई को संपादित किया जिससे वे जनता के दिलों के काफी करीब आ गए।
बताते हैं कि डॉ.शर्मा पुराने राजाओं की तरह भेस बदलकर जिले का भ्रमण कर रियाया का हाल चाल दुख दर्द जाना करते थे, बाद में उसे दूर करने की दिशा में प्रयास किया करते थे। नागौर के हर कार्यालय में ‘‘रिश्वत न देने‘‘ संबंधी जुमलों के साथ बोर्ड लगे हुए हैं। एसा नहीं कि ये बोर्ड हाथी कि मंहगे दांतों की तरह हों, इन पर बाकायदा उन्होंने कार्यवाही भी की है। नागौर की जनता को कलयुग के इस काल में राम राज्य की कुछ तो अनुभूति हुई ही होगी। पहले भी अनेक जिलों के जिलाधीशों ने इस तरह का दिखावा करने का प्रयास किया किन्तु वे बाद में जनता के सामने एक्सपोज हो गए। देश के हर प्रांत की सीमाओं पर परिवहन, सेल टेक्स, मण्डी, आदि की जांच चौकियां आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी हैं, यहां से हर माह लाखों रूपए चौथके तौर पर राजनैतिक दलों, राजनेताओं, पत्रकारों और अधिकारियों को जाता है। सब कुछ देखने सुनने जानने के बाद भी जिला कलेक्टरों की खामोशी उनकी कार्यप्रणाली की ओर इशारा करने के लिए पर्याप्त मानी जा सकती है।
कुछ सालों पूर्व महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में एक जिला कलेक्टर द्वारा एकल खिड़की प्रणाली आरंभ की थी। वह प्रणाली इतनी सफल हुई कि अनेक सूबों में अहमदनगर प्रणालीके नाम से हर जिलों में काउंटर खोल दिए गए थे। जिला कलेक्टरों की अनदेखी के चलते इस व्यवस्था ने अहमदनगर सहित समस्त जिलों में दम ही तोड़ दिया।
हमारी निजी राय में तो डॉ.सुमित शर्मा के बतौर कलेक्टर कार्यकाल को एक नजीर मानकर आईएएस के प्रशिक्षण में इसे शामिल करना चाहिए, ताकि देश के जिलों को चलाने वाले जिलाधीशों को कम से कम इस बारे में तो जानकारी मिल सके कि जिस मिशन जिस उद्देश के तहत उनके कांधों पर जिलों की कमान सौंपी जा रही है, वह मुकाम वे कैसे पा सकते हैं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज अनेक सूबों में जिलों में कलेक्टरी तक की बोली लगने लगी है। डॉ.सुमित शर्मा द्वारा किए गए अनूठे, अद्भुत, जनकल्याणकारी प्रयासों के लिए वे बधाई के पात्र हैं, किन्तु यह वाकई उनकी कार्यप्रणाली का हिस्सा ही रहे तो बेहतर होगा, कहीं एसा न हो कि आने वाले समय में उनके बारे में भी कोई कहानी सुनने को मिल जाए।