गुरुवार, 22 जुलाई 2010

गरीब गुरबे आज भी वंचित हैं स्कूल जाने से

सपने दिखाना बंद करिए सोनिया जी!

शिक्षा का अधिकार कानून है देश भर में बेअसर

कानून बनाने के पहले उसका पालन सुनिश्चित करे सरकार

कानून की सरेआम उडती धज्जियां और बेबस शासक

(लिमटी खरे)

अशिक्षा आज भारत गणराज्य में नासूर बन चुकी है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। देश पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली सवा सौ साल पुरानी अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने अपने आप को आजादी के उपरांत खासा समृद्ध कर लिया है, पर आवाम ए हिन्द (भारत गणराज्य की जनता) का अधिक हिस्सा आज भी भुखमरी के आलम में अशिक्षित ही घूम रहा है। देश में सुरसा की तरह बढती मंहगाई पर से जनता जनार्दन का ध्यान भटकाने के लिए सरकारों द्वारा नए नए छुर्रे छोडे जाते हैं। इसी तारतम्य में कुछ दिनों पूर्व देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू किया गया।

अप्रेल फूल यानी एक अप्रेल के दिन से भारत गणराज्य में लागू हुए शिक्षा के अधिकार कानून में भारत में छः से 14 साल तक के बच्चे को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार कानून मे यह प्रावधान किया गया था कि शाला प्रबंधन इस बात को सुनिश्चित करे कि आर्थिक तौर पर कमजोर बच्चों को शाला की क्षमता के 25 फीसदी स्थान इन बच्चों को दिए जाएं। कमोबेश यही कानून चिकित्सा के क्षेत्र में चल रहे फाईव स्टार निजी अस्पतालों के लिए लागू किए गए थे। विडम्बना यह है कि देश में कानून तो बना दिए जाते हैं पर उनके पालन की सुध किसी को भी नहीं रहती है। राजधानी दिल्ली में ही सरकार से तमाम सुविधाएं लेने वाले फोर्टिस अस्पताल द्वारा पिछले पांच सालों में महज पांच गरीबों का ही निशुल्क इलाज किया। यह बात हम नहीं दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य मंत्री किरण वालिया कह रहीं हैं वह भी विधानसभा पटल पर जानकारी रखते हुए। इसके उपरांत आज भी फोर्टिस अस्पताल सीना तानकर अमीरों और धनाड्यों की जेब तराशी कर रहा है, वह भी सरकारी सुविधाओं और सहायता को प्राप्त करने के साथ। ब देश के नीति निर्धारकों की जमात के स्थल पर ही इस तरह की व्यवस्थाएं फल फूल रही हों तब बाकी की कौन कहे। अभी से शिक्षा के कानून का यह आलम है तो आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून की धज्जियां अगर उडती दिख जाएं तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

शिक्षा के अधिकार कानून की धारा 13 साफ तौर पर इस ओर इशारा करती है कि स्कूलों में अनिवार्य तौर पर 25 फीसदी सीट उन बच्चों के लिए आरक्षित रखी जाएं जो कमजोर वर्ग के हों। कानून की इस धारा का पहली मर्तबा उल्लंघन करने पर 25 हजार रूपए एवं उसके उपरांत हर बार पचास हजार रूपए के जुर्माने का प्रावधान है। शिक्षा के अधिकार का कानून तो लागू हो चुका है देश के गरीब गुरबों को कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी, वजीरे आजम डॉ.एम.एम.सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने एक सपना दिखा दिया है कि गरीबों के बच्चे भी अब कुलीन लोगों के बच्चों, धनाडयों, नौकरशाहों, जनसेवकों के साहेबजादों, के साथ अच्छी स्तरीय शिक्षा ले सकते हैं।

शिक्षा आदि अनादिकाल से ही एक बुनियादी जरूरत समझी जाती रही है। पहले गुरूकुलों में बच्चों को व्यवहारिक शिक्षा देने की व्यवस्था थी, जो कालांतर में अव्यवहारिक शिक्षा प्रणाली में तब्दील हो गई। आजाद भारत में शासकों ने अपनी मर्जी से शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग करना आरंभ कर दिया। अब शिक्षा जरूरत के हिसाब से नहीं वरन् सत्ताधारी पार्टी के एजेंडे के हिसाब से तय की जाती है। कभी शिक्षा का भगवाकरण किया जाता है, तो कभी सामंती मानसिकता की छटा इसमें झलकने लगती है।

वर्तमान में अनिवार्य शिक्षा के कानून में 6 से 14 साल के बच्चे को अनिवार्य शिक्षा प्रवेश, पहली से आठवीं कक्षा तक अनुर्तीण करने पर प्रतिबंध, शारीरिक और मानसिक दण्ड पर प्रतिबंध, शिक्षकों को जनगणना, आपदा प्रबंधन और चुनाव को छोडकर अन्य बेगार के कामों में न उलझाने की शर्त, निजी शालाओं में केपीटेशन फीस पर प्रतिबंध, गैर अनुदान प्राप्त शालाओं के लिए अपने पडोस के मोहल्लों के न्यूनतम 25 फीसदी बच्चों को अनिवार्य तौर पर निःशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया गया है।

जिस तरह लोगों को आज इतने समय बाद भी रोजगार गारंटी कानून के बारे में जानकारी पूरी नहीं हो सकी है, उसी तरह आने वाले दिनों में अनिवार्य शिक्षा कानून टॉय टॉय फिस्स हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इस नए कानून से किसी को राहत मिली हो या न मिली हो कम से कम गुरूजन तो मिठाई बांट ही रहे होंगे क्योंकि उन्हें शिक्षा से इतर बेगार के कामों में जो उलझाया जाता था, उससे उन्हें निजात मिल ही जाएगी। अब वे धूप में परिवार कल्याण और पल्स पोलियो जैसे अभियानों में चप्पल चटकाने से बच सकते हैं।

लगता है अनिवार्य शिक्षा कानून का मसौदा केंद्र में बैठे मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली सहित अन्य महानगरों और बडे शहरों को ध्यान में रखकर बनाया है। इसमें शाला की क्षमता के न्यूनतम 25 फीसदी उन छात्रों को निशुल्क शिक्षा देने की बात कही गई है, जो गरीब हैं।

अगर देखा जाए तो मानक आधार पर कमोबेश हर शाला भले ही वह सरकारी हो या निजी क्षेत्र की उसमें बुनियादी सुविधाएं तो पहले दिन से ही और न्यूनतम अधोसंरचना विकास का काम तीन साल में उलब्ध कराना आवश्यक होता है। इसके अलावा पुरूष और महिला शिक्षक के लिए टीचर्स रूम, अलग अलग शौचालय, साफ पेयजल, खेल का मैदान, पुस्तकालय, प्रयोगशाला, बाउंड्रीवाल और फंेसिंग, किचन शेड, स्वच्छ और हवादार वातावरण होना आवश्यक ही होता है।

छात्रों के साथ शिक्षकों के अनुपात में अगर देखा जाए तो सीबीएसई के नियमों के हिसाब से एक कक्षा में चालीस से अधिक विद्याथियों को बिठाना गलत है, फिर भी सीबीएसई से एफीलेटिड शालाओं में सरेआम इन नियमों को तोडा जा रहा है। शिक्षकों के अनुपात मे मामले में अमूमन साठ तक दो, नब्बे तक तीन, 120 तक चार, 200 तक पांच शिक्षकों की आवश्यक्ता होती है।

अपने वेतन भत्ते और सुविधाओं में जनता के गाढे पसीने की कमाई खर्च कर सरकारी खजाना खाली करने वाले देश के जनसेवकों ने अब देश का भविष्य गढने की नई तकनीक इजाद की है। अब किराए के शिक्षक देश का भविष्य तय कर रहे हैं। कल तक पूर्णकालिक शिक्षकों का स्थान अब अंशकालीन और तदर्थ शिक्षकों ने ले लिया है। निजी स्कूल तो शिक्षकों का सरेआम शोषण कर रहे हैं। अनेक शालाएं एसी भी हैं, जहां शिक्षकों को महज 500 रूपए की पगार पाकर 2500 रूपए पर दस्तखत कर रहे हैं।

दुर्भाग्य तो यह है कि केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार द्वारा साठ के दशक के पहले राजकपूर अभिनीत चलचित्र सपनों के सौदागर की तरह सपने ही बचने पर आमदा है। इन सपनों को हकीकत में बदलने का उपक्रम कोई नहीं कर रहा है। दो वक्त की रोटी न मिल पाने के चलते फाका मस्ती में दिन गुजारने वाला आम हिन्दुस्तानी आज नजरें उठाकर अपने शासकों की तरफ देखने को मजबूर है। शासक हैं कि वे भारत गणराज्य की जनता को भुलावे में रखकर रोज नया सपना दिखा रहे हैं। आलम यह है कि भारत में आज किसी के तन पर कपडा नहीं है किसी के सर पर जमीन नहीं तो कोई रोटी के निवाले को तरह रहा है। इस सबसे शासकों और जनसेवकों को क्या लेना देना। जनसेवक तो अपनी मौज मस्ती में व्यस्त हैं, उनके वेतन भत्ते और सुख सुविधाओं में कहीं से कहीं तक कोई कमी नहीं है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी को शिक्षा का अधिकार का मशविरा देने वालों ने उन्हें देश की भयावह जमीनी हकीकत नहीं दिखाई होगी। आज भी देश में वर्ग और वर्णभेद उसी तरह हिलोरे मार रहा है जैसा कि आजादी के पहले था। आज अमीर का मित्र अमीर ही है, अमीर गरीब के बीच का फासला बहुत ही ज्यादा बढ चुका है। अमीर और अधिक अमीर होता जा रहा है तथा गरीब गुरबे की कमर टूटती ही जा रही है।

क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई उद्योगपति, नौकरशाह, सांसद, विधायक, जनसेवक आदि यह बर्दाश्त कर सकता है कि उसके घर झाडू फटका करने या बर्तन मांझने वाले का कुलदीपक बाजू में बैठकर उसी शाला में पढे? जवाब नकारात्मक ही होगा। तब क्या नामी गिरामी दून, मेयो, मार्डन, डीपीएस आदि स्कूल में पढने वाले ‘‘बाबा साहब‘‘ अर्थात साहब बहादुरों के बच्चों को यह गवारा होगा कि उसके बाजू में बैठकर एक गरीब शिक्षा ग्रहण करे? ये सारी बातें फिल्मों में ही शोभा देती हैं जिसमंे अमीरी गरीबी को सगी बहनें जतलाकर इनके बीच के भेद को अंत में मिटा दिया जाता है।

शिक्षा के अधिकार कानून में अमीरी गरीबी के बीच की खाई के कारण होने वाली दिक्कत को अब मानव संसाधन विभाग द्वारा ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ की संज्ञा देने की तैयारी की जा रही है। इस कानून के पालन में शालाओं विशेषकर निजी तौर पर शिक्षा माफियाआंे द्वारा संचालित शालाओं के संचालकों को बहुत ही अधिक ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ का सामना करना पड रहा है। अनेक शिक्षण संस्थाओं के संचालकों ने इस ‘‘व्यवहारिक कठिनाई‘‘ के चलते अपनी शिकायत से मानव संसाधन विकास मंत्रलय को आवगत करा दिया गया है।

गौरतलब है कि सरकारी तौर पर संचालित होने वाले नवोदय विद्यालय समिति द्वारा शिक्षा की गुणवत्ता की दुहाई देते हुए शिक्षा के अधिकार कानून में छूट देने की मांग तक कर डाली है। इस समिति ने इस कानून को धता बताते हुए छटवीं कक्षा में नामांकन के लिए प्रतियोगी परीक्षा आहूत की थी। इस मामले में इस कानून का पालन सुनिश्चित करने वाली राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग संस्था ने इसे नोटिस भी जारी किया था। इस मामले में आगे नतीजा ढाक के तीन पात ही आने वाला है।

आरटीई की धारा 13 (1) में साफ किया गया है कि काई भी शाला या उसका प्रबंधन किसी भी विद्यार्थी से प्रवेश के दौरान या बाद में केपीटेशन फीस या प्रतियोगिता फीस की वसूली नहीं कर सकता है। बावजूद इसके देश भर में सुदूर अंचलों यहां तक कि जिला मुख्यालयों में संचालित होने वाली शालाएं न केवल केपीटेशन फीस ही वसूल कर रही हैं वरन् शिक्षा माफिया तो किसी दुकान विशेष से गणवेश, जूते, किताबें खरीदने के लिए बच्चों को बाध्य करने नहीं चूक रहे हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बाद भी आज देश में न जाने कितने लाख बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हैं। मंहगाई के इस दौर मंे पालकों पर फीस, यूनीफार्म, किताबों के बोझ के अलावा फिर केपीटेशन फीस का बोझ डाला जा रहा है। अमीरजादों के लिए यह सब करना आसान है, पर मरण तो गरीब गुरबों की ही है, जिनको ध्यान में रखकर इस कानून की नींव डाली गई थी। हमारा कहना महज इतना ही है कि सवा सौ साल राज कर लिया कांग्रेस ने, भारत गणराज्य के लोगों को जितना नारकीय जीवन भोगने पर मजबूर करना था कर लिया अब तो कम से कम इक्कसीवीं सदी में भारतीयों को आजाद कर दिया जाए। लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि इस परोक्ष गुलामी से बेहतर तो ब्रितानियों की गुलामी थी। कम से कम कर देने पर सुविधाएं तो मिल जाती थीं। शिक्षा का अधिकार कानून अस्तित्व में है पर किस काम का जब गरीब का बच्चा शिक्षा ही प्राप्त न कर सके। तो बेहतर होगा सोनिया गांधी जी आप भी जमीनी हकीकत से रूबरू हों और भारत गणराज्य की सवा करोड जनता को सपने न दिखाएं। कम से कम वे सपने जिन्हें देखने के बाद जब वे टूटें तो आम आदमी में जीने की ललक ही समाप्त हो जाए।

बहरहाल सरकार को चाहिए कि इस अनिवार्य शिक्षा कानून में संशोधन करे। इसमें भारतीय रेल, दिल्ली परिवहन निगम और महाराष्ट्र राज्य सडक परिवहन की तर्ज पर पैसेंजर फाल्ट सिस्टम लागू किया जाना चाहिए। जिस तरह इनमें सफर करने पर टिकिट लेने की जवाबदारी यात्री की ही होती है। चेकिंग के दौरान अगर टिकिट नहीं पाया गया तो यात्री पर भारी जुर्माना किया जाता है। उसी तर्ज पर हर बच्चे के अभिभावक की यह जवाबदारी सुनिश्चत की जाए कि उसका बच्चा स्कूल जाए यह उसकी जवाबदारी है। निरीक्षण के दौरान अगर पाया गया कि कोई बच्चा स्कूल नहीं जाता है तो उसके अभिभावक पर भारी पेनाल्टी लगाई जानी चाहिए।

सरकार द्वारा सर्वशिक्षा अभियान, स्कूल चलें हम, मध्यान भोजन आदि योजनाओं पर अरबों खरबों रूपए व्यय किए जा चुके हैं, पर नतीजा सिफर ही है। निजाम अगर वाकई चाहते हैं कि उनकी रियाया पढी लिखी और समझदार हो तो इसके लिए उन्हें वातानुकूलित कमरों से अपने आप को निकालकर गांव की धूल में सनना होगा तभी अतुल्य भारत की असली तस्वीर से वे रूबरू हो सकेंगे। इसके लिए सरकार को कडे और अप्रिय फैसले लेने से भी नहीं हिचकना चाहिए। भव्य अट्टालिकाओं वाले निजी स्कूल में यह अवश्यक कर दिया जाए कि वे अपनी कुल क्षमता का पच्चीस फीसदी हिस्सा अनिवार्य तौर पर गरीब गुरबों के लिए न केवल सुरक्षित रखे वरन ढूंढ ढूंढ कर उन स्थानों को भरने के बाद अपने सूचना पटल पर अलग से इन लोगों की सूची भी चस्पा करे। अप्रिय और कडे कहने का तातपर्य यह है कि अधिकांश बडे स्कूल किसी ने किसी राजनेता के ही हैं या उनमें इनकी भागीदारी है। एसा करने से एक ओर जहां देश की आने वाली पीढी शिक्षित हो सकेगी वहीं दूसरी ओर जनसेवा का ढोंग करने वाले राजनेताओं के चेहरों से नकाब भी उतर सकेगा।

खामोश क्‍यों हैं कमल नाथ समर्थक

आखिर खामोशी क्यों ओढ रखी है कमल नाथ का झंडा उठाने वालों ने 
अगर कमल नाथ दोषी नहीं तो क्यों नहीं देते सफाई
 
सिवनी के अधिकार के लिए अब तक क्यों नहीं की पहल कमल नाथ ने
 
(लिमटी खरे)

सिवनी 22 जुलाई। राजनेताओं के अथक प्रयासों के बावजूद भी भगवान शिव प्रसन्न हुए और अटल बिहारी बाजपेयी के कार्यकाल की महात्वाकांक्षी स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना के अंग उत्तर दक्षिण गलियारे के नक्शे से सिवनी का नाम न मिट सका। जब राजनेताओं के भरसक प्रयास से यह नहीं हो सका तो अब इसे सिवनी से होकर न जाने देने के लिए ना ना प्रकार के षणयंत्र आरंभ होने लगे। वैसे भी षणयंत्रों के ताने बाने के चलते ही सिवनी लोकसभा सीट का बिना प्रस्ताव के ही अवसान हो गया, और सभी खामोश रहे। इसके बाद पडोसी जिले छिंदवाडा में वहां के सांसद कमल नाथ ने ब्राड गेज का तोहफा दे डाला, इतना ही नहीं छिंदवाडा के साथ ही साथ बालाघाट को अपने हृदय में बसाने वाले कमल नाथ ने बालाघाट जिले में बालाघाट गोंदिया, बालाघाट कटंगी ब्राडगेज को न केवल स्वीकृत करवाया वरन इसके उद्घाटन में हरी झंडी दिखाने भी आए।
 
इसके उपरांत बालाघाट से जबलपुर रेल मार्ग के रास्ते में आने वाली हर रूकावट के लिए कमल नाथ पूरी तरह कटिबद्ध ही नजर आ रहे हैं, यही कारण है कि इसके वन क्षेत्र से होकर गुजरने मंे आने वाली बाघाओं को तत्काल दूर करवाने के लिए कमल नाथ ने वनमंत्री को पत्र भी लिखा है। इसके पहले भाजपा के शासनकाल में ही कमल नाथ द्वारा मण्डला जिले में एक विशाल स्टेडियम की सौगात दे डाली थी, वह भी तब जब भाजपा के फग्गन सिंह कुलस्ते मण्डला से सांसद और केंद्र में मंत्री थे।
 
इतिहास इस बात का साक्षी है कि कमल नाथ जिन्हें महाकौशल का सर्वमान्य नेता माना जाता है ने महाकौशल के छिंदवाडा, मण्डला, बालाघाट, नरसिंहपुर, डिंडोरी जिलों को कुछ न कुछ सौगात अवश्य दी है, पर जब सिवनी जिले की बात आती है तो सिवनी जिले के विकास में में कमल नाथ का योगदान नगण्य है। सिवनी में एक भी सौगात एसी नहीं कही जा सकती है, जिसके बारे में कमल नाथ के समर्थक गर्व से कह सकें कि यह सिवनी जिले को केंद्रीय मंत्री कमल नाथ के द्वारा प्रदान की गई है। जाहिर है कमल नाथ सामने सामने तो सिवनी के विकास के लिए प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं, पर जब बात विकास की आती है तो सिवनी के प्रति उनका दुराग्रह और सौतेलापन स्वयमेव ही सामने आ जाता है।
 
सिवनी जिले में केंद्रीय मंत्री कमल नाथ के आभा मण्डल के सप्तऋषियों में अनेकानेक नेता आज भी विद्यमान हैं, जो कमल नाथ के नाम की माला जपते नहीं थकते। जिले में व्याप्त चर्चाओं के अनुसार इन नेताओं के अंदर इतना माद्दा नजर नहीं आता कि ये केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के पास जाकर सिवनी जिले के साथ उन्हीं के भूतल परिवहन मंत्रालय के अधीन होने वाले इस अन्याय का प्रतिकार कर सकें।
 
सिवनी की फिजां में चल रही चर्चाओं के अनुसार उत्तर दक्षिण फोरलेन गलियारा जो मण्डला और बालाघाट संसदीय क्षेत्र के साथ ही साथ लखनादौन, केवलारी, सिवनी और बरघाट विधानसभा से होकर गुजर रहा है के निर्माण के लिए किसी भी विधायक या संसद सदस्य ने कमल नाथ को पत्र लिखने का साहस नहीं जुटाया है। यहां तक कि कमल नाथ के ‘‘गण‘‘ समझे जाने वाले मध्य प्रदेश विधानसभा के उपाध्यक्ष ठाकुर हरवंश सिंह ने भी इस मामले मंे मौन ही अख्तियार किया हुआ है। पार्टी हित को सर्वोपरि रखने वाले ठाकुर हरवंश सिंह ने संवैधानिक परंपराओं को ताक पर रखकर विधानसभा के बाहर धरना देना मुनासिब समझा किन्तु सिवनी के हित वाले चतुष्गामी मार्ग के लिए दो लाईन लिखना या धरना देना मुनासिब कतई नहीं समझा। प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यक्ता है। सिवनी की जनता अब भली भांति समझ चुकी है कि कौन सा राजनेता सिवनी का भला सोच रहा है और कौन सा राजनेता आपने निहित स्वार्थों को सिवनी के स्वार्थ के आगे प्राथमिकता दे रहा है।
 
जिले में चल रही चर्चाओं के अनुसार केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ के ‘‘गुर्गों‘‘ द्वारा इस मामले में आपने आका से इस मामले में अब तक जवाब सवाल क्यों नहीं किया गया? चर्चा तो यहां तक भी है कि इसके पहले कमल नाथ के संसदीय क्षेत्र  छिंदवाडा को सामान्य से सुरक्षित किया जा रहा था, जिसे बचाने के लिए सिवनी संसदीय क्षेत्र को बली चढा दिया गया। इस समय भी कमल नाथ के सिवनी स्थित झंडाबरदारों ने ‘‘सिवनी के हितों को गोड कर अपने आका कमल नाथ के हितों को‘‘ प्राथमिकता दी थी। इस बार भी कमोबेश यही होता नजर आ रहा है।
 
यही कारण है कि पिछले साल 21 अगस्त को जब गली गली में कमल नाथ के पुतलों को जूते चप्पलों से पीट पीट कर जलाया गया, कमल नाथ की सांकेतिक शवयात्रा निकाली गई तब कमल नाथ के समर्थक मूकदर्शक बने बैठे रहे। कहा जा रहा है कि इसी बात से खफा होकर कमल नाथ ने अब प्रण कर लिया है कि चाहे कुछ भी हो जाए पर उत्तर दक्षिण गलियारा सिवनी से होकर कतई नहीं जाएगा। वैसे पिछले साल 21 अगस्त को हुए एतिहासिक बंद को नेशनल मीडिया ने जिस तरह तवज्जो दी थी, उसे देखकर भूतल परिवहन मंत्री कमल नाथ तक हिल गए थे। विडम्बना यह है कि यह आंदोलन क्रमबद्ध रूप से जारी नहीं रह सका, वरना देश के शासकों को सिवनी वासियों के आगे घुटने टेकने ही पडते।

सीबीएसई की खामोशी से शिक्षा माफिया की पौ बारह (3)

सीबीएसई पर हावी शिक्षा माफिया (3)

टीचर्स निभा रहे हैं सिक्यूरिटी गार्ड की भूमिका?

सिवनी। जिला मुख्यालय सिवनी में इसाई मिशनरी द्वारा संचालित किए जाने वाले सेंट फ्रांसिस स्कूल के नए आधे अधूरे भवन का पहुंच मार्ग पूरी तरह कीचड से सन गया है, जिससे इसमें कभी आटो फंस जाते हैं तो कभी बच्चों के जूते मोजे और गणवेश कीचड से सन जाते हैं. अभिभावकों की परेशानी यह है कि उन्हें रोजाना अपने लाडले के जूते मोजों और गणवेश की सफाई अलग से करना पड रहा है. इसके अलावा यहां कार्यरत अध्यापक जिन्हें ब्रितानी उपनिवेशक सभ्यता के हिसाब से उनके नाम या सरनेम से फलां टीचर के नाम से पुकारा जाता है, वे भी अपने मूल काम से इतर सिक्यूरिटी गार्ड की भूमिका में नजर आ रहे हैं.
 
बताया जाता है कि मध्य प्रदेश के शिक्षा बोर्ड से ज्यादा क्रेज सीबीएसई शिक्षा बोर्ड का है, जिसके तहत किराना दुकानों के मानिंद जगह जगह खुले शिक्षण संस्थान अपने आप को सीबीएसई से संबद्ध करवाना चाहते हैं. सीबीएसई पाठयक्रम में मोटी फीस मिलती है, जिसके चलते ज्यादा धन कमाने की चाह में शिक्षण संस्थाओं के संचालकों द्वारा शिक्षा जैसे पवित्र पेशे को बदनाम किया जा रहा है. सबसे अधिक आश्चर्य का विषय तो यह है कि यह सब देखने सुनने के बाद भी प्रशासन के अधिकारी, राजनैतिक दल के नुमाईंदे सभी चुप्पी साधे बैठे हैं.
 
मध्य प्रदेश जोन के सीबीएसई अजमेर कार्यालय के सूत्रों का कहना है कि सेंट फ्रांसिस स्कूल सिवनी की मान्यता के संबंध में प्रकरण लंबित तो है, इसमें राज्य शासन की अनुशंसा ही काफी विलंब से प्राप्त हुई है. राज्य शासन के शिक्षा विभाग के सूत्रों का कहना है कि इस शाला के प्रकरण की अनुशंसा करने में अधिकारी टालामटोल इसलिए कर रहे थे क्योंकि शाला ने वांछित आहर्तांएं पूरी करने में बार बार हीला हवाला किया जा रहा था. राजधानी भोपाल स्थित राज्य सचिवालय वल्लभ भवन और गौतम नगर स्थित राज्य शिक्षा संचालनालय के सूत्रों की मानें तो वहां यह चर्चा तक आम है कि इस शाला ने राज्य शासन की अनुशंसा करवाने के लिए छरू अंको में राशि तक खर्च की है. इन बातों में सच्चाई कितनी है यह बात या तो शाला प्रबंधन जानता है या फिर राज्य शासन के अधिकारी, पर यह सत्य है कि काफी मशक्कत के उपरांत यह प्रकरण राज्य शासन से अनुमोदित हो सका था.

सूत्रों ने बताया कि अप्रेल माह में शाला प्रबंधन को सूचित किया गया था कि सीबीएसई का निरीक्षण दल जुलाई माह में किसी भी तारीख को वहां जाकर निरीक्षण कर सकता है, अतरू अन्य औपचारिकताओं के साथ भवन संबंधी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएं. हडबडी में शाला प्रबंधन द्वारा इस भवन का काम तेज गति से आरंभ करवा दिया गया. २१ जून से आरंभ हुए शैक्षणिक सत्र को बहुत ही हडबडी में आरंभ करवाया गया था. इसके उपरांत यहां चार दिन का अवकाश भी घोषित कर दिया गया था. शहर से लगभग सात किलोमीटर दूर स्थित इस आधे अधूरे शाला भवन में आज भी अनेक खामियां साफ तौर पर देखी जा सकती हैं. बरसात में इस भवन के दक्षिणी दिशा में बहने वाले नाले के पास बाउंड्रीवाल का निर्माण किए बिना ही यहां स्कूल आरंभ करवा दिया गया था. बाद में जब इस बात को प्रमुखता से उजागर किया तब जाकर शाला प्रबंधन चेता और बाउंड्रीवाल का काम आरंभ करवाया.

इसके अलावा आवागमन के पर्याप्त साधन न होना इस शाला की सबसे बडी खामी बनकर सामने आई है. आलम यह है कि शाला में अध्ययनरत विद्यार्थी सुबह छरू बजे घरों से निकलते हैं और शाम चार बजे घर लौटने पर मजबूर हैं. यहां उल्लेखनीय तथ्य यह है कि शाला में पढाने वाले टीचर्स इन दिनों सिक्यूरिटी गार्ड की भूमिका में नजर आ रहे हैं. जब तक बच्चों के लिए आवागमन के साधन नहीं आ जाते हैं टीचर्स को बच्चों की देखरेख के लिए वहां रूकने पर मजबूर होना पड रहा है. टीचर्स जो अलहसुब्बह छरू बजे घरों से निकलते हैं वे शाम ढलते ही घर लौट पाते हैं और निढाल होकर गिर पडते हैं, इससे विद्यार्थी और टीचर्स के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पडे बिना नहीं है. लगता है शाला प्रबंधन द्वारा सिक्यूरिटी गार्ड के खाते की राशि को बचाकर टीचर्स और विद्यार्थियो के साथ अन्याय किया जा रहा है. बताया जाता है कि शाला प्रबंधन ने इस बार शनिवार का अवकाश भी घोषित कर दिय है.

मुख्य मार्ग से शाला पहुंच मार्ग की जर्जर हालत शाला प्रबंधन के हिटलरी रवैए को बखान करने के लिए पर्याप्त कही जा सकती है. शाला का यह मार्ग खबना अर्थात कीचड से सना हुआ है. इस सडक पर आने जाने वाली सायकल, रिक्षा, आटो, स्कूटर आदि जब तब फंस जाया करते हैं. सांसद, विधायक और जिला प्रशासन से ध्यानाकर्षण की जनापेक्षा है.
 
(क्रमशः जारी)