गुरुवार, 3 जून 2010

पहला नागरिक हो तो एसा!

पहला नागरिक हो तो एसा!
सालों बाद पानी किल्लत बिना गुजरी गरमी

(लिमटी खरे)

अस्सी के दशक तक सुबह और शाम दो समय नल के आदी थे, शहरवासी। इसके बाद पानी की किल्लत दिनों दिन बढती गई। एसा नहीं कि सिवनी में पानी के स्त्रोत नहीं हैं। पानी के पर्याप्त स्त्रोत होने के बाद भी जनसेवकों की अदूरदर्शिता का खामियाजा भगवान शिव की नगरी में रहने वालों को भोगना पडा। एशिया के सबसे बडे मिट्टी के बांध होने का गौरव पाने वाली संजय सरोवर परियोजना के होते हुए भी सिवनी शहरवासियों के कंठ सूखे ही रह जाते हैं। अपने आंचल में बबरिया, दलसागर, बुधवारी और मठ जैसे विशाल जलसंग्रह क्षमता वाले तालाब के अलावा रेल्वे स्टेशन से सटे हुए दो छोटे तालाब सहेजने के बाद भी अगर सिवनी में नागरिकों को निस्तार के लिए भी पर्याप्त पानी न मिल सके तो इसे जनसेवकों की अक्षम्य और बडी चूक की ही श्रेणी में रखा जाएगा।

नब्बे के दशक तक सिवनी शहर को पानी प्रदाय के लिए इकलौती पानी की टंकी टिग्गा मोहल्ला में हुआ करती थी, जिसे बबरिया और लखनवाडा के तट से पानी लाकर भरा जाता रहा है। कालांतर में पानी की टंकियों की संख्या बढी और भीमगढ बांध से सुआखेडा से सिवनी तक लंबी पाईपलाईन बिछा दी गई। इसे सिवनी शहर की आबादी को 2025 तक का आंककर दोनों समय पानी देने की गरज से बनाया गया था। कांग्रेस के शासनकाल में स्थापित इस परियोजना की गुणवत्ता पर उसी वक्त प्रश्न चिन्ह लग गया था। परीक्षण के दौरान ही कलेक्टोरेट के सर्किट हाउस वाले गेट के पास पाईप लाईन पानी का दवाब नहीं सह पाई और उसने आसमान की ओर मुंह कर दिया था। आज यह नल जल योजना माह में आधे दिन ही लोगों का साथ दे पाती है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा की, किसी भी जनसेवक ने इस घटिया, स्तरहीन नल जल योजना के बारे में कभी भी कोई प्रश्न विधानसभा में उठाने की जहमत नहीं उठाई। यह नल जल योजना तत्कालीन लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री ठाकुर हरवंश सिंह के स्वर्णिम कार्यकाल का एक बदनुमा दाग है सिवनी के माथे पर। इस योजना के बारे में न तो कोई जनहित याचिका ही दायर करने का साहस जुटा पाया न ही मध्य प्रदेश की सबसे बडी पंचायत अर्थात विधानसभा में ही इसको चेलेंज किया जा सका है। यह क्यों नहीं किया जा सका, यह बात भी आईने के मानिंद साफ ही है, कि कौन किसके एहसानों तले बुरी तरह दबा हुआ है, किसने किस कारण अपना मंुह बंद कर रखा है! कौन जान बूझकर ही अपने नयनों पर काली पट्टी बांधे हुए हैं। ये सारे जतन बेमानी है, नेता सोच रहे हैं कि शतुरमुर्ग के मानिंद वे रेत में अपनी गर्दन गाडकर सोच रहे होंगे कि उन्हें कोई देख नहीं रहा है, पर सच्चाई इससे इतर ही है। जनता नेताओं की नूरा कुश्ती समझ चुकी है। समय समय पर किसी महाबली विशेष के विरोध का दिखावा भी अपना उल्लू सीधा करने की एक रणनीति का ही हिस्सा है।

जब से नगर पालिका परिषद में चुनी हुई परिषद विराजी है तब से याद नहीं पडता कि किसी गरमी के मौसम में पानी की किल्लत के बिना गुजारा हुआ हो। पिछले पांच सालों के कार्यकाल में तो सारे रिकार्ड ही ध्वस्त हुए हैं। सत्ता के मद में चूर परिषद ने लोगों को तीन तीन चार चार दिन तक पानी नहीं दिया, और मजे से अपने अपने घरों में फायर बिग्रंेड बुलाकर काम चलाया। भगवान शिव की नगरी सिवनी की सीधी साधी भोली भाली ने सब कुछ देखा सुना और सहा। नागरिकों को लगने लगा था कि ग्रीष्मकाल आरंभ होने के पहले ही फरवरी से अगस्त तक के सात माह पानी की किल्लत से आम जनता को गुजरना ही होगा। वस्तुतः हर साल एसा होता भी रहा है।

पानी की मारामारी के मामले में इस साल की गरमी का मौसम अपेक्षाकृत कम परेशानी भरा रहा है। अनेक मौकों पर हमने खुद भी देखा है कि नगर पालिका के युवा एवं उत्साही अध्यक्ष राजेश त्रिवेदी द्वारा खुद ही गांधी भवन के पीछे पानी के स्त्रोत पर खडे होकर टेंकर्स में पानी भरवाया गया। इतना ही नहीं टेंकर पर खुद ही सवार होकर गली मोहल्लों में पानी की सप्लाई भी करवाई गई। देखा जाए तो सिवनी के इतिहास में यह पहला मौका होगा जबकि पालिका के किसी अध्यक्ष द्वारा जनता के इस पानी के दुख को समझा हो। इस साल शहर में पानी की किल्लत की खबरें बहुत ही कम प्रकाश में आई हैं। यह राजेश त्रिवेदी का भाग्य ही माना जाएगा कि इस साल गरमी के मौसम में सुआखेडा जलावर्धन योजना के पाईप लाईन भी ज्यादा नहीं फटे। नगर पालिका में कोई नया चमत्कार नहीं हुआ है। उतने ही टेंकर, फायर बिग्रेड, फायर फायटर हैं, उतनी ही तादाद में वे बिगडे पडे हैं, चालू हालत में उतने ही बल्कि कुछ कम ही टेक्टर्स और टेंकर्स हैं। वही कर्मचारी हैं, फिर इस बार पानी की किलकिल क्यों नहीं हुई।

जाहिर सी बात है कि आज से पहले प्रबंधन का अभाव हुआ करता था। अगर कुशल प्रबंधन में काम किया जाए तो संसाधन महत्वपूर्ण नहीं रह जाते फिर संसाधन भले ही कम क्यों न हों, लक्ष्य की प्राप्ति कठिन जरूर होती है, पर मुश्किल नहीं। राजेश त्रिवेदी ने इस बार गरमी में लोगों को पानी के लिए तरसने से बचाकर एक अनुकरणीय उदहारण कायम किया है, जिसकी हर शहर वासी को मुक्त कंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए। पूर्व में एक बार हमने अपने आलेख में अनुज राजेश के द्वारा किए जा रहे मोक्षधाम के जीर्णाेद्धार के बारे में लिखकर उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी, तब राजेश नगर पालिकाध्यक्ष के पद पर काबिज नहीं थे। आज राजेश सिवनी शहर के पहले नागरिक हैं। शहर की कमान उनके हाथ में है।

राजेश की दूरंदेशी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अध्यक्ष बनने के उपरांत राजेश ने हमसे पहली बात यही पूछी थी, कि सिवनी शहर को किस दिशा में आगे बढाया जा चुका है। शहर आज वाकई में अंदर ही अंदर भर चुका है। चारों दिशाओं में नाकों के बाहर जाने से लोग कतरा रहे हैं। सिवनी की नगर पालिका प्रदेश की पहली नगर पलिका है, जहां ड्रेस कोड लागू किया गया है। आम आदमी आज पालिका कार्यालय जाता है तो उसे वे ही कर्मचारी मान सम्मान देकर उसका काम कर रहे हैं। कम उमर में राजेश द्वारा जिस तरह अनुभवी कदमतालों के जरिए शहर को सलीके से लाने और करीने से सजाने का प्रयास किया है, वह प्रशंसनीय है। सिवनी शहर वासियों को चाहिए कि छोटी मोटी भ्रांतियों और अफवाहों पर कान न देकर राजेश त्रिवेदी के नगर पालिकाध्यक्ष रहते हुए अपने शहर को संवार लें।

निहित स्‍वार्थ में उलझते



निहित स्वार्थ को परे रखें जनसेवक 
 
वर्ष 2011 के लिए जनगणना के लिए भारत सरकार की सेनाएं (कर्मचारियों की फौज) सज गई हैं। हर घर जाकर भारत की वर्तमान जनसंख्या के बारे में आंकडे जुटाए जा रहे हैं। इस प्रक्ति्रया के पहले चरण में जनगणना में लगे अधिकारी लोगों के पास पहुंचने आरंभ हो गए हैं। बावजूद इसके संसद में बैठे जनसेवकों का एक बहुत बडा धड़ा आज भी इस बात पर आमदा ही नजर आ रहा है कि जनगणना को जातिगत आधार पर कराया जाए। आखिर जातिगत आधार पर जनगणना का औचित्य क्या है, इस बात पर कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है, बस मेरी मुर्गी की डेढ़ टांग की कहावत चरितार्थ करने में लगे हैं सारे जनसेवक। जाति के अधार पर जनगणना के मासले पर केंद्रीय कैबिनेट भी किसी नतीजे पर नहीं पहंुच सकी है। यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि समय रहते इस मामले में विचार-विमर्श नहीं किया गया। आखिर क्या वजह है कि जनसेवकों के तर्क-कुर्तक पर केंद्र सरकार ठोस तर्क से लेस होकर सामने आने से घबरा रही है। जनगणना का काम आरंभ हो चुका है, फिर उसे करने या न करने में सरकार का संशय समझ से परे ही है। अगर देखा जाए तो भारत जैसा देश दुनिया में बिरला ही होगा, जहां हर वर्ग, धर्म, सम्भाव के लोगों को अपनी मनमर्जी के काम करने की पूरी आजादी है। इन परिस्थितियों में भारत में जनगणना को जाति, वर्ग, संप्रदाय से पूरी तरह मुक्त ही रखा जाना चाहिए था। एक तरफ तो भारत सरकार यह बात जोर-शोर से कहती है कि हम सिर्फ भारतीय हैं, वहीं दूसरी ओर जनगणना में जाति, वर्ग, संप्रदाय की बात कहना बेमानी ही होगा। भारत में जाति आधारित जनगणना का आगाज 1881 में हुआ था, जिसे 1931 में समाप्त कर दिया गया था। 1931 से 2001 तक किसी को भी जाति आधारित जनगणना नहीं किए जाने से कोई आपत्ति नहीं हुई। भारत गणराज्य के संविधान निर्माताओं ने भी जाति आधारित जनगणना को समर्थन नहीं दिया। देखा जाए तो जब बच्चा स्कूल में पढ़ता है, तब उसे यह पता नहीं होता है कि वह जिसके बाजू में बैठकर अध्ययन कर रहा है वह किस जाति का है। स्कूल में रोजाना आधी छुट्टी के वक्त जिसके साथ बैठकर वह अपना टिफिन शेयर करता है, वह किस जाति का है, उसे इससे कोई लेना देना नहीं होता है। बाद में जब वह पढ़-लिखकर नौकरी के लिए जाता है, तब जरूर उसे पता चलता है कि फलां नौकरी उसके उसी बाल सखा को मिल गई, क्योंकि वह पिछड़ा था, और वह इसलिए वंचित रह गया, क्योंकि वह अगड़ी जाति के घर में जन्म लेकर दुनिया में आया है। इस तरह के भेदभाव को जन्म देने वाली व्यवस्था को तत्काल से रोकने की जरूरत है। 
 
रोजनामचा ब्लॉब में लिमटी खरे