बुधवार, 2 जून 2010

रियाया को जहर पीने को मजबूर करते शासक

ठंडा मतलब जहर!
सरकार ही कीटनाशक पिलाए तो कोई क्या करे!

ठंडे का पैमाना क्या!

मतलब सरकार ही पिला रही है जहर!

(लिमटी खरे)

स्वयंभू योग गुरू बनकर उभरे बाबा रामदेव ने जब देश में ठंडे पेय के कुछ उत्पादों के खिलाफ देशव्यापी अभियान छेडा तब उसकी व्यापक प्रतिक्रियाएं सामने आईं थीं। देश में जब ठंडे पेय पदार्थ के कुछ ब्रांड ने कीटनाशक का काम आरंभ किया और लोगों ने इसे आजमाया तब जाकर उनकी आखें खुलीं, पर देश के शासकों की आंखे आज भी इस मामले में बंद ही नजर आ रही हैं। विडम्बना तो यह है कि भारत गणराज्य को आजाद हुए छः से ज्यादा दशक बीत चुके हैं, फिर भी सात सालों के बाद भी सरकार आज तक बाजार में बिक रहे ठंडे पेय के मानक तय नहीं कर पाई है। इससे साफ हो जाता है कि बाजार में बिकने वाले शीतल पेय की लाबी कितनी ताकतवर है कि इनको बनाने वाली कंपनियों के ‘‘भारी दबाव‘‘ के चलते देश की सबसे बडी पंचायत में बैठे जनसेवक अपने कर्तव्यों के प्रति कथित तौर पर उदासीन रवैया अख्तियार किए हुए हैं। अगर मामला उनके वेतन भत्ते बढाने का होता तो निश्चित तौर पर सारे के सारे लामबंद होकर कोई ठोस निष्कर्ष पर पहुंच चुके होते, मगर अफसोस यह मामला रियाया के स्वास्थ्य से जुडा हुआ है इसलिए आवाम का खेरख्वाह कोई भी नहीं है।

इस मसले में सबसे चौकाने वाली बात यह है कि देश में बिक रहे शीतल पेय में कीटनाशकों की मात्रा यूरोपीय मानकों के हिसाब से 42 गुना अधिक पाई गई थी। इसके लिए गठित संयुक्त संसदीय समिति ने सरकार से जल्द से जल्द शीतल पेय संबंधी मानक तय करने की पुरजोर सिफारिश भी की थी, पर नतीजा सिफर ही है। इस समिति का प्रतिवेदन फरवरी 2004 में संसद के पटल पर रखा गया था। इसके तीन साल बाद मार्च 2007 में एन.के.गांगुली की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञों की समिति ने भी केंद्र सरकार से कहा था कि शीतल पेय विशेषकर कोला में कीटनाशकों के मानक निर्धारित कर दिए जाएं। संसद की भेडचाल का आलम यह था कि सरकार ने अप्रेल 2009 तक इनका मानक लागू करने का लक्ष्य रखा था। कितने आश्चर्य की बात है कि जब यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि बाजार में जहर के तौर पर बिक रहे शीतल पेय में कीटनाशकों की मात्रा बहुत ज्यादा है, फिर भी सरकार ने इसे लागू करने के लिए दो साल का और वक्त मांगा। वक्त बीत गया पर आज भी शीतल पेय के मानक निर्धारित नहीं हो सके हैं।

इस मसले को प्रकाश में आए एक लंबा अरसा बीत चुका है फिर भी सरकार द्वारा कोई जरूरी कदम नहीं उठाए गए हैं। इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि शीतल पेय को बनाने वाली कंपनियों ने सरकार और जनसेवकों के मुंह भारी भरकम थैलियों से बंद कर दिए हों, पर देश के जनसेवकों को अपनी मर्यादा और लोगों के स्वास्थ्य का ख्याल रखना था, वस्तुतः जो नहीं हो पा रहा है। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि इन शीतल पेय निर्माता कंपनियों के आगे भारत सरकार ने घुटने टेक दिए हैं। बाबा रामदेव की अपील पर लोगों ने अपने घरों के शौचालय शीतल पेय के एक ब्रांड विशेष से साफ किए और पाया कि बाबा का कहना सही है, इसी के बाद से लोगों के शोचालयों में टायलेट क्लीनर का स्थान इस तरह के शीतल पेय ने ले लिया है। इतना ही नहीं लोगों नें अपनी फसलों पर इस ब्रांड का छिडकाव किया और पाया कि वाकई उनकी फसलें कीट पतंगों से बची हुई है। इस मामले में एक निजी टीवी चेनल के मद्य विरोधी एक विज्ञापन का जिकर लाजिमी होगा जिसमें बेटे को शराब पीता देख पिता उसकी शराब में एक कीडा डाल देता है और कहता है बेटा इसको पीने से आदमी मर भी सकता है। यह सुनकर बेटा तपाक से जवाब देता है कि पिता जी इसीलिए मैं पी रहा हूं कि पेट के कीडे मर जाएं।

केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पंवार खुद ही इस संयुक्त संसदीय समिति के अध्यक्ष रह चुके हैं, और उन्होंने ही स्वीकार किया है कि भारत के बाजार में बिकने वाले शीतल पेय में कीटनाशक की मात्रा अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से कई गुना अधिक है, तब क्या कारण है कि भारत गणराज्य की सरकार द्वारा अपने सवा सौ करोड से अधिक की आबादी वाले देश को इस धीमे जहर का सेवन करने पर मजबूर कर रही है। लोगों को धीमे जहर का अदी बनाने वाली शीतल पेय निर्माता कंपनियां सरकार को मुंह चिढाती ही नजर आ रही हैं। पेप्सिको इंडिया के प्रवक्ता का कहना है कि अगर सरकार शीतल पेय के अंतिम उत्पाद तक मानक लाती है तो वे इसका स्वागत करेंगे। सवाल यह है कि जिस मामले में यह साबित हो चुका है कि वह मानव उपयोग के लिए घातक है तब उसको तत्काल प्रभाव से बंद क्यों नहीं किया जा सकता है। जहां तक रही आखिरी उत्पाद की बात तो सरकार को कहना चाहिए कि आखिरी उत्पाद तक तो हम बाद में जाएंगे, पहले जिसमें जहर है उसे तो बंद कर दिया जाए।

भारत गणराज्य की विडम्बना देखिए, देश की सबसे बडी पंचायत में संसद सदस्यों की सेहत का ख्याल रखते हुए इन शीतल पेय की आपूर्ति संसद में तो रूकवा दी गई है, पर आवाम के लिए यह धीमा जहर हर चाय पान ठेले पर आज भी खुलेआम मिल रहा है। देशी विदेशी कंपनियां इस धीमी मौत के माध्यम से देश की जनता की सेहत से खिलवाड कर रही हैं। जब विशाल जनादेश पाकर आवाम को अमन चैन का सपना दिखा संसद में पक्ष और विपक्ष में बैठने वाले जनसेवक ही अपने कर्तव्यों से मुंह मोड लें तो फिर देशी और विदेशी कंपनियां अपने निहित स्वार्थ के लिए सरेराह जन सामान्य के स्वास्थ्य के साथ अगर खिलवाड कर रही हैं तो इसमें गलत क्या है। जब रक्षक ही अपने कर्तव्यों से मुंह मोड ले तो रियाया आखिर किससे उम्मीद लगाए।

शोभा की सुपारी बने सरकारी अस्‍पताल

अब कामरेडों का उठा भरोसा सरकारी अस्पताल से
मकपा, भाकपा के नेता चले कार्पोरेट अस्पताल की ओर

(लिमटी खरे)


नई दिल्ली 02 जून। किफायत से चलने के लिए मशहूर कामरेड बीमार पडने पर अब सरकारी अस्पतालों के बजाए निजी अस्पतालों की ओर रूख करने लगे हैं। निजी तौर पर फाईव स्टार संस्कृति वाले अस्पालों को प्रमोट करने की गरज से सरकार द्वारा अपने स्वामित्व वाले सरकारी रूग्णालयों को दुर्दशाग्रस्त करने में कोई कसर नहीं रख छोड रही है। मामला चाहे केंद्र सरकार के अस्पतालों का हो या राज्यों की सरकारों के अधीन चलने वाले अस्पतालों का, हर जगह ही अस्पताल अपनी दुर्दशा पर खुद ही आंसू बहाने पर मजबूर हैं। कल तक माना जाता था कि कामरेड मतलब सादगी पसंद, मितव्ययता के साथ चलने वाला इंसान। आज कामरेड के मायने बदल गए हैं, आज कामरेड विलासिता को अंगीकार करने से नहीं चूक रहे हैं। कामरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के घर संपन्न हुए विवाह में जिस कदर का शोशा किया गया था, वह किसी से छिपा नहीं है।

पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु जब बीमार पडे तो इलाज के लिए उन्हें कोलकता के एक कार्पोरेट अस्पताल में दाखिल करवाया गया। पूर्व लोकसभाध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जब अस्वस्थ्य हुए तब उन्हें भी कार्पोरेट अस्पताल में तीमारदारी के लिए ले जाया गया। मकापा के संस्थापक सदस्य हरकिशन सिंह सुरजीत को अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान में दाखिल करवाने के उपरांत नोएडा स्थित कार्पोरेट अस्पताल में इलाज हेतु गए। उनका इलाज मंहगे आलीशान ‘‘मेट्रो अस्पताल‘‘ में किया गया था।

पिछले दिनों ‘हर एक नागरिक को निशुल्क इलाज मुहैया करवाने‘‘ के प्रस्ताव पर स्वास्थ्य संबंधी कामों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ‘प्रयास‘ और जन स्वास्थ्य अभियान द्वारा राजधानी में आयोजित एक परिचर्चा में देश भर से आए स्वास्थ्य एक्टिविस्ट ने एक स्वर से यही बात कही थी कि देश भर में निजी अस्पतालों को बढावा देने के लिए सरकारों द्वारा जनबूझकर ही सरकारी अस्पतालों को दुर्दशा ग्रस्त छोड दिया गया है। मंहगे आलीशान अस्पतालों में गरीबों को इलाज के लिए धक्के खाने पडते हैं। गौरतलब है कि पिछले पांच सालों में राजधानी के मंहगे फोर्टिस अस्पताल ने सरकारी नियम कायदों को धता बताते हुए महज पांच गरीब मरीजों का ही इलाज किया था, रही बात सरकारी सुविधाओं की तो इस अस्पताल ने सरकार से मिलने वाली सारी सुविधाओं को पर्याप्त मात्रा में उपभोग किया जा रहा है।

देश के सबसे बडे सरकारी अस्पताल ‘एम्स‘ को भगवान भरोसे ही छोड दिया गया है। कहने को प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने एम्स में अपनी बायपास सर्जरी करवाई थी, पर कम ही लोग इस बात को जानते हैं कि देश की व्यवसायिक राजधानी मुंबई से निजी अस्पताल के एक कुशल सर्जन को इसके लिए पाबंद किया गया था, जिसने अपने साथ समूचा आपरेशन थियेटर ही लेकर आए थे। देश के सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा को देखकर सादगी पसंद कामरेड भी अब कार्पोारेट अस्पतालों की ओर रूख करने पर मजबूर हो गए हैं।

जात न पूछो साधु की