बुधवार, 25 नवंबर 2009

इंद्रप्रस्थ में होता आधुनिक सागर मंथन

इंद्रप्रस्थ में होता आधुनिक सागर मंथन

(लिमटी खरे)


पाण्डव काल में इंद्रप्रस्थ का अपना अलग महत्व हुआ करता था। इक्कीसवीं सदी में एक बार फिर इंद्रप्रस्थ अर्थात दिल्ली नए क्लेवर में उभरकर आई है। इतिहास का घालमेल अगर कहीं देखने को मिल रहा है तो वह आज देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में।
सागर मंथन के उपरांत अमृत निकला था, जिसे देवताओं ने ग्रहण किया और वे अमर हो गए, असुर इसे नहीं पा सके तो वे मृत्युलोक गमन कर गए। आज अदने से पार्षद के टिकिट के लिए प्रदेश की राजधानी के बजाए छोटे छोटे नेता दिल्ली दरबार का मुंह ताक रहे हैं कि इंद्रप्रस्थ में होते ```टिकिट मंथन`` के अमृत की एक ही बूंद उन्हें मिल जाए और वे अमरत्व को प्राप्त कर लें, उनकी अपनी पार्टी के ही अन्य दावेदार इसे न पा सकें और वे असुर हो जाएं।

मध्य प्रदेश और राजस्थान में होने वाले स्थानीय निकाय चुनावों की गहमागहमी लोकसभा या विधान सभा से कही गुना ज्यादा ही प्रतीत हो रही है। अभी नामांकन दाखिल करने की तिथि में महज 24 घंटे बचे हैं, और देश के दोनों प्रमुख राजनैतिक दल कांग्रेस और भाजपा में कशमकश का दौर जारी है।

कितने आश्चर्य की बात है कि सभी राजनैतिक दल `तृणमूल` अर्थात जमीन से जुडे होने का दावा तो करते हैं पर जब भी आम आदमी के जनसेवक चुनने की कवायद में टिकिट की बारी आती है तो सारी की सारी पोटलियां दिल्ली में ही जाकर एकत्र हो जाती हैं, और फिर फैसला वहीं से होकर आता है।

कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री और युवराज राहुल गांधी भले ही गला फाड फाडकर नेताओं को जमीन से जुडने की दुहाई दे रहे हों, पर जब अपनी जमीन (अपने प्रदेश) में इसे टिकिट तय करने की बात आती है तो कथित तौर पर विवादों से बचने का बहाना बनाकर मामला आलाकमान पर छोडने की नौटंकी कर गेंद दिल्ली के पाले में डाल दी जाती है। नेता क्या उम्मदीवारी का दावा करने वाले भी हवाई जहाज से दिल्ली भोपाल एक कर देते हैं।

देश के बडे नेता जो कभी चुनाव नहीं लडे या चुनाव लडे भी तो हमेशा औंधे मुंह ही गिरे, वे दो तीन हजार जनसंख्या वाले वार्ड के प्रतिनिधि का निर्णय आखिर किस आधार पर लेने के अधिकारी हैं। विडम्बना ही कही जाएगी कि जिन्हें वार्ड का ज्योग्राफिया ही नहीं पता, वहां की स्थानीय जरूरतें समस्याओं से कभी दो चार नहीं हुए, वे निर्धारित करतें हैं वार्ड का भाग्य विधाता।

कांग्रेस हो या भाजपा हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हर सियासी दल भले ही गणेश परिक्रमा को गलत माने पर कुनैन की गोली की तरह कडवी सच्चाई यही है कि बढावा उसे ही मिलता है जो अपने नेता की दहरी को बरांबार चूमता है। एक नहीं अनेकों उदहारण एसे हैं जिनमें लोकसभा हो या विधानसभा या फिर स्थानीय निकाय के चुनाव जिनमें नेताओं ने अपना वर्चस्व दिखाने के लिए हारने वाले उम्मीदवार पर ही दांव लगाया है।

लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकिट बिकने की खबरें आम हुआ करतीं हैं। लगता है मानों ये ``जनसेवक`` बनने की नहीं किसी विलासिता भरे विदेशी टूर की टिकिट हो। उत्तर प्रदेश की एक सियासी पार्टी पर तो राज्य सभा तक की टिकिट बेचने के आरोप लग चुके हैं। इस बार स्थानीय निकाय के चुनावों में भी टिकिटों के बिकने की खबरें जोर पकड रहीं हैं।

होना यह चाहिए कि चुनाव चाहे लोकसभा के हों विधान सभा या स्थानीय निकाय के, हर मामले में क्षेत्र के कार्यकर्ताओं से रायशुमारी कर ही निर्णय लेना चहिए। कहने को पार्टियां जिला इकाई से नामों के पेनल बुलवा भेजती है पर जब सूची को अंतिम रूप देने की बात होती है, तब इन सूचियों को दरकिनार कर दिया जाता है। इस तरह की घालमेल की राजनीति देश को आखिर किस अंधी सुरंग में ले जा रही है, इस बारे में सोचने की फुरसत देश के नेताओं को नहीं है।

अब देखना तो यह है कि प्रमुख राजनैतिक दलों के द्वारा सतयुग के इंद्रप्रस्थ और कलयुग के दिल्ली में चल रहे इस टिकिट मंथन से निकलने वाले अमृत कलश में से किसे कितनी बंदे मिल पाती है, या फिर टिकिट काउंटर खोलकर अमृत कलश को यूं ही रीतने दिया जाएगा।