मंगलवार, 7 जुलाई 2009

07 july 2009

अहमद, दििग्वजय के बीच घूमती कांग्रेसी सियासत की धुरी

(लिमटी खरे)

सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस 2004 के मुकाबले कुछ स्वस्थ्य दिख रही है। पिछली बार बूढ़ी और पथराई आंखों वाली कांग्रेस के चेहरे का नूर वापस आ गया है। उसकी आंखों में रोशनी और दिल जवां होने लगा है। कल तक गठबंधन की बैसाखियों पर चलने वाली कांग्रेस अब अपने पैरों पर चल निकली है।यह सब चमत्कार कैसे हुआ! इस सबके पीछे दो ही नाम सामने आ रहे हैं। पहला कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमति सोनिया गांधी का और दूसरा नेहरू गांधी परिवार की पांचवीं पीढ़ी राहुल गांधी का। मगर सवाल यह उठता है कि इनको राजनैतिक मशविरा कौन दे रहा है। पाश्र्व में (बिहाईंड द कर्टिंन) कौन है?सियासत समझने वाले हैरान हैं कि दस सालों तक का राजनैतिक सन्यास (किसी भी सरकारी पद का त्याग) लेने की घोषणा और उसे अमली जामा पहनाने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजा दििग्वजय सिंह केंद्रीय राजनीति में सबसे ताकतवर महासचिव कैसे बने हुए हैं?इसके अलावा कल तक विसेंट जार्ज के भरोसे चलने वाला 10 जनपथ अब किसके सहारे से चल रहा है? उत्तर है अहमद पटेल। कांग्रेस अध्यक्ष के राजनैतिक सचिव अहमद पटेल कभी सामने आकर पब्लिसिटी पाने वालों में से नहीं हैं। कहा जाता है कि पटेल की फितरत में चमक दमक और मीडिया से दूर रहने के साथ ही साथ सारे सूत्र अपने हाथ में रखना है।कांग्रेस के सियासी आपरेशन के सेनापति माने जाने वाले अहमद पटेल की देखरेख में ही पिछला और यह चुनाव लड़ा गया है। टिकिट बंटवारे में उन्होंने अपने करीबियों को उपकृत किया तो अपने हेवीवेट विरोधियों को नापने के लिए उन्होंने मंत्रालय बंटवारे में कैंची चलवा दी।कोई अगर राहुल और सोनिया गांधी के सबसे करीबी दस लोगों की फेहरिस्त बनाना चाहे तो एक से दसवें नंबर पर दििग्वजय सिंह और अहमद पटेल का नाम ही आएगा। इसके बाद गिनती आगे आरंभ होगी, जिसमें नया नाम जुड़ने की गुंजाईश है।दििग्वजय सिंह ने उत्तर प्रदेश में अपने बूते अकेले चुनाव लड़ने की जिद की और 21 सीटें कांग्रेस की झोली में डाल दीं। यह अलहदा बात है कि यूपी में कांग्रेस की कुछ हद तक ही सही हुई पुर्नवापसी के लिए उन्होंने राहुल गांधी के सर पर ताज बंधवाकर एक परिपक्व और दूरदृष्टा राजनेता होने का परिचय दिया है।दििग्वजय सिंह जानते हैं कि आने वाला समय राहुल गांधी का ही है। अत: उन्हें राजा ने बखूबी साध रखा है। वैसे भी देश भर में यह प्रचारित है कि राजा दििग्वजय सिंह आदिकाल के गुरू द्रोणाचार्य की तरह अजुZन को धनुZविद्या सिखा रहे हैं। राजा दििग्वजय सिंह को राहुल गांधी के अघोषित राजनैतिक गुरू की तरह ही देखा जाता है।रही बात अहमद पटेल की तो वे सोनिया गांधी के राजनैतिक गुरू होने का सौभाग्य तो नहीं मिल सका है किन्तु अहमद पटेल की सियासत को समझना हर किसी के बस की बात नहीं। सरकार बनाने के पहले शरद पवार, ममता बनर्जी और द्रमुक को अगर किसी ने साधा था तो वह अहमद पटेल ही थे।इसके बाद सरकार के गठन के उपरांत बारी आई बजट के माध्यम से जनता को लुभाने की। सबसे पहले देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली पर काबिज कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार के लोक लुभावन बजट के माध्यम से देश भर में यह संदेश देने का प्रयास किया गया कि अगर रियाया कांग्रेस का साथ देती है तो उस पर कोई कर नहीं लगाया जाएगा।इस पूरे खेल में अजुZन सिंह के उपरांत परिदृश्य में आए मध्य प्रदेश के चाणक्य राजनेता दििग्वजय सिंह ही पर्दे के पीछे से कठपुतलियां नचाते नजर आए। राजा दििग्वजय सिंह की ही सलाह पर राहुल गांधी ने शीला दीक्षित की मुश्कें कसीं और दिल्लीवासियों को कांग्रेस का साथ देने का तोहफा दिया।इसके बाद बारी आई केंदीय बजट की। सबसे पहले त्रणमूल कांग्रेस के कब्जे वाला रेल विभाग का बजट आया। इसमें दििग्वजय सिंह और अहमद पटेल के निर्देशन में कांग्रेस का आम आदमी पर ध्यान रखने का काम किया गया। ममता का रेल बजट काफी सराहा गया।फिर प्रणव मुखर्जी के आम बजट में भी राहुल गांधी की मंशानुसार ग्रामीणों को खास तवज्जो दी गई। यह भी दूरदृष्टा राजनेता दििग्वजय सिंह की ही सोच का परिणाम था। भले ही अहमद पटेल ने सक्रिय राजनीति में अपनी आमद दर्ज न कराई हो, किन्तु राजा दििग्वजय सिंह तो मध्य प्रदेश में दस साल तक लगातार राज करते रहे हैं, अत: उन्हें बजट की बारिकियां ज्यादा पता हैं।केंद्र सरकार में भले ही राजा दििग्वजय सिंह और अहमद पटेल का रोल सामने से किसी को नजर न आ रहा हो किन्तु पाश्र्व में रहकर दोनों ही कुशल राजनेता कठपुतलियां नचाने के काम को बखूबी अंजाम दे रहे हैं। आने वाले समय में जब राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री की बागडोर संभालने के लिए तैयार हो जाएंगे तब अहमद पटेल के बजाए राजा दििग्वजय सिंह की तूती केंद्र में बोलती साफ नजर आ सकती है।



कब तक होते रहेंगे शिक्षा को लेकर एक्सपेरीमेंट!

(लिमटी खरे)

भारतवर्ष में आजादी के बाद से ही शिक्षा को लेकर तरह तरह के सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। देश का मानव संसाधन मंत्रालय हमेशा से ही विवादों का घर बना रहा है। पिछले दो दशकों से यह मंत्रालय इसके मंत्रियों के लिए परीक्षण का अड्डा बन गया है। पहले मुरली मनोहर जोशी पर हिन्दुत्व तो अजुZन सिंह पर सेक्यूलरिज्म को प्रश्रय देने के आरोप लगे।सर्वाधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि देश की शिक्षा व्यवस्था आज भी वही है जो 1935 में लार्ड मेकाले द्वारा आरंभ की गई थी। कहा जाता है कि ``अंग्रेज चले गए, गुलामी छोड़ गए।`` आज हम आजादी के बासठ सालों में भी अपनी शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था को इजाद नहीं कर सके हैं, देश की सरकारों के लिए यह शर्म की बात है। आज भी हम लगभग दो सौ साल पुरानी अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली में ही उलझे हुए हैं।वर्तमान मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने सौ दिनी घोषणा कार्यक्रम में अनेक शिगूफे छोड़ दिए हैं। माना जा रहा है कि आने वाले पांच सालों तक यह मंत्रालय अगर कोई काम भी न करे तो इन शिगूफों के बल पर यह सदा ही चर्चा में बना रह सकता है। आश्चर्य है, पूर्व मानव संसाधन मंत्री डॉ. एम.एम.जोशी और अजुZन सिंह ने अब तक अपनी जुबान बंद रखी है। इस पर किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं दी है।वैसे सिब्बल का एक कदम सराहनीय कहा जाएगा जिसमें उन्होंने कहा है कि सरकार मानसून सत्र में ही एक महत्वपूर्ण विधेयक लाने जा रही है, जिसमें बच्चों को मुफ्त शिक्षा मुहैया करवाने की व्यवस्था होगी। सिब्बल के इस कदम से देश के नौनिहाल शालाओं की ओर आकषिZत हो सकते हैं।आज जरूरत इस बात की है कि शालाओं का माहौल इस तरह का बनाया जाए कि बच्चों में शाला जाने की ललक पैदा हो सके। फुटपाथों पर, चाय पान ठेलों यहां तक कि शराब ठेकों पर कल्लन, लल्लन, पप्पू, गुड्डू की आवाजें सुनाई देती हैं। इनके अभिभावक इन्हें पापी पेट की खातिर नौकरी करने पर मजबूर करते हैं। केंद्र की मध्यान भोजन योजना के बावजूद अगर जमीनी हकीकत यह है तो फिर कपिल सिब्बल के सारे प्रयासों पर पानी फिरते देर नहीं लगेगी।दूसरी महत्वपूर्ण बात दसवीं बोर्ड को समाप्त करने वाली है। हमारा मानना है कि बेहतर होता कि इस मामले में देशव्यापी बहस चलाई जाती फिर किसी नतीजे पर पहुंचा जाता। कम से कम राज्यों के शिक्षा मंत्रियों से तो मशविरा कर लिया होता। केंद्र में सिब्बल बैठे हैं अंतिम निर्णय आखिर में उन्हीं के हाथ होता, किन्तु इसके सुखद और दुखद दोनों ही परिणामों से कम से कम वे आवगत तो हो जाते।वैसे दसवीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त किए जाने का असर दोनों दिशाओं में हो सकता है। जब दसवीं बोर्ड के आधार पर कोई नौकरी नहीं मिलती और न ही किसी कांपीटीटिव एक्जाम के लिए इसको योग्यता माना गया है तब इस तरह की बोर्ड का ओचित्य भला क्या है? वैसे भी पूर्व में जब पांचवी बोर्ड को समाप्त किया गया था तब कुछ राज्यों में हायतौबा हुई फिर यही स्थिति आठवीं बोर्ड के दौरान भी बनी। आज सभी ने उस व्यवस्था को अंगीकार कर लिया है।वैसे दसवीं बोर्ड समाप्त होने से इसमें असफल या कम नंबर आने पर आत्महत्या जैसे आत्मघाती कदम से बच्चे बच सकेंगे। आज जनवरी माह के आते है दसवीं के बच्चों के साथ ही साथ उनके अभिभावकों के सर पर तनाव हावी होने लगता है। मोटी मोटी कोर्स की किताबों के बीच दिन के 24 घंटे भी कम लगने लगते हैं।वहीं इसके नकारात्मक परिणामों पर भी गौर फरमाना जरूरी है। कुछ लोगों का मानना है कि बच्चा दसवीं बोर्ड में हल्का दबाव झेलकर बारहवीं बोर्ड के लिए मानसिक तौर पर तैयार हो जाता है। आने वाले दिनों में एक ही झटके को संभालना उसके लिए संभव हो सकेगा? बारहवीं का दबाव उसकी हिम्मत तोड़ कर रख देगा।बेहतर होता कि सरकार पहली से नौंवी तक की पायदानों में शिक्षा व्यवस्था को इतना चुस्त दुरूस्त बना देती कि दसवीं बोर्ड समाप्त करने की जरूरत ही नहीं रह जाती। दसवीं बोर्ड समाप्त करना समस्या का हल नहीं है। असल समस्या पहली से नौंवी कक्षा तक की व्यवस्था दुरूस्त करने की है।प्रोफेसर यशपाल की सिफारिशें वास्तव में अद्भुत कही जा सकती हैं। उन्होंने कहा है कि देश भर में कुकरमुत्ते के मानिंद उगे निजी कालेज को मान्यता देने का सिलसिला समाप्त होना चाहिए। आज पहुंच संपन्न लोगों ने शिक्षा को पूरी तरह से व्यवसाय बना दिया है, जो निंदनीय है। जगह जगह कम योग्यता वाले गैर अनुभवी शिक्षक देश में नई पौध तैयार कर रहे हैं। जिन्हें विषय के ककहरे का ज्ञान नहीं वे उस विषय का फलसफा पढ़ा रहे हैं।यशपाल समिति ने सिफारिश दी है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, भारतीय तकनीकि शिक्षा परिषद, मेडीकल कांउसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्थाओं को भंग कर देना चाहिए। सच ही है इनके रहते अगर शिक्षा के क्षेत्र में इस कदर अराजकता फैलेगी तो इनके बनाए रखने का ओचित्य ही नहीं है।वैसे यह भी कहा जा रहा है कि शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश खोलने के मार्ग प्रशस्त कर रही है यूपीए सरकार। गौरतलब होगा कि पूर्व में सरकार ने चिकित्सा के क्षेत्र को निजी हाथों में देकर एक एक्सपेरीमेंट किया था, जिसका परिणाम महंगी चिकित्सा सुविधाओं के रूप में सामने आया था।



और पारदशीZ हुआ सूचना का अधिकार

(लिमटी खरे)

सूचना के अधिकार का कानून संयुक्त प्रगतिशील गठबंघन सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा। कल तक मनमानी करने वाले सरकारी मुलाजिमों में कम से कम कुछ तो खौफ जागा है इस कानून के आने से। हाल ही में इसी कड़ी में एक और अभिनव बात को शामिल किया गया है।सरकारी नस्तियों में इंद्राज की जाने वाली टिप्पणियों को सूचना के अधिकार कानून के दायरे में मानने की केंद्र सरकार की घोषणा ने एक और क्रांति ला दी है। निश्चित तौर पर सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर पारदशीZ प्रशासन की दिशा में यह एक बड़ी जीत मानी जा सकती है।इस मामले को लेकर पिछले कई दिनों से सरकार और सूचना आयोग के बीच टकराव की स्थिति बन चुकी थी। दरअसल कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग की वेवसाईट पर दर्शाया गया था कि किसी भी नस्ती पर की गई विभागीय टिप्पणियां सूचना के अधिकार का हिस्सा नहीं हैं, अत: इन्हें जाहिर नहीं किया जा सकता है।शिकायतों के उपरांत सूचना आयुक्त ने अनेक बार विभाग को इस दावे को विलोपित करने को कहा था। दरअसल यूपीए सरकार के द्वारा पारित इस अभिनव कानून की धारा आठ में साफ है कि सुरक्षा और गुप्तचर से जुड़े अठ्ठारह संगठनों को छोड़कर किसी भी सरकारी कार्यालय से फाईल या नोटशीट पर दर्ज टिप्पणियों को इस कानून में दर्शित आवेदन देकर प्राप्त किया जा सकता है।जब सारी हदें पार हो गईं तो सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्लाह को कड़ा रूख अिख्तयार करते हुए कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग को फटकार लगाते हुए चेतावनी दी कि आयोग का आदेश न मानने पर विभाग के दो अफसरान पर भारतीय दंड संहिता की धारा 166 के तहत मुकदमा चलाया जाएगा और जिसमें एक साल तक की सजा का प्रावधान भी है।वैसे यह अकाट्य सत्य ही है कि यूपीए का यह सूचना के अधिकार का कानून प्रशासन को असहज बनाने के लिए पर्याप्त ही कहा जा सकता है। अपनी गिल्तयां छिपाने की गरज से गोपनीयता का हवाला देकर ये सरकारी मुलाजिम इस कानून की धार को बोथरा करने के प्रयास जब तब करते आए हैं।इस कानून की जद से अनेक चीजों को बाहर रखने के असफल प्रयास अनेक मर्तबा हुए हैं। केंद्र के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग ने भी इस बारे में कोशिशें की पर सफलता हाथ नहीं लगी। यहां तक कि उत्तर प्रदेश की निजाम मायावती ने भी अपने सूबे में अनेक विभागों को इसके दायरे से बाहर रखने के प्रयास किए हैं।हमारे मतानुसार इस अभिनव सूचना के अधिकार कानून ने एक ओर आम और निरीह जनता के पैरों के नीचे की जमीन मजबूत की है तो ईमानदार अफसरान के हौसले भी बुलंद किए हैं। अमूमन मलाईदार पदों पर चिपके रहने की गरज से सरकारी कर्मचारियों द्वारा राजनैतिक दबाव और प्रशासनिक आदर के चलते फाईलों पर नियम विरूद्ध इबारतें लिख दी जातीं हैं। ईमानदार कर्मचारी अब सूचना के अधिकार की दुहाई देकर इससे बचने में कामयाब हो जाएंगे।कई स्थानों पर तो नस्तियां तक गायब होने की खबरें भी हैं। पहले विभागीय जांच के दौरान रिकार्ड रूम में आग लगना, नस्तियां चोरी हो जाना आम बात हुआ करतीं थीं। कुछ साल पहले मध्य प्रदेश में शिष्टाचार विभाग में भी करोड़ों के घपलों की नस्तियां गायब कर दी गईं थीं।वर्तमान में ही सूचना का अधिकार इतना प्रभावी है कि आम जनता द्वारा इसका प्रयोग तहेदिल से किया जा रहा है। सरकार भी इस मामले में पूरी तरह संजीदा दिख रही है। देश की पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति ने भी हाल ही में अपने अभिभाषण में कहा है कि सूचना के अधिकार को और अधिक प्रभावी बनाया जाएगा।देश के अनेक हिस्सों से सूचना के अधिकार के बेजा इस्तेमाल की खबरें भी आने लगी हैं। सूचना के अधिकार में जानकारी मांगना फिर ``सेटिंग`` कर अपने आवेदन को आगे न बढ़ाने के भी अनेक प्रकरण सामने आए हैं। सरकार को चाहिए कि इस पक्ष को भी ध्यान में रखते हुए सूचना के अधिकार कानून में तब्दीली करे, ताकि आम जनता के हाथ में आया यह अभिनव अस्त्र कहीं दलालों के लिए तलवार न साबित हो जाए।



नज़ीर बन गया है नरसिंहपुर का बघुवार

(लिमटी खरे)

भारत गांव में बसता है, यह बात आईने की तरह साफ है। महानगरों की चका चौंध के बावजूद भी आज महानगरीय संस्कृति के लोग अमन चैन के लिए गांव की ओर रूख कर रहे हैं। आजादी के छ: दशकों के बाद भी देश के गांव अपने अस्तित्व को तलाश रहे है, इसी बीच मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले का बघुवार गांव आर्दश गांव की श्रेणी में नजीर बनकर उभरा है।2007 में निर्मल गांव का दर्जा प्राप्त बघुवार वैसे तो नरसिंहपुर विधानसभा और जनपद पंचायत करेली का हिस्सा है, किन्तु राजनैतिक दांवपेंचों से दूर इस गांव के लोगों ने मन में विकास की भावना को कोई भी बाधा रोक नहीं सकी है। यही कारण है कि इस गांव ने प्रगति के अनेक सौपान तय किए हैं।बकौल जनसंपर्क अधिकारी रिश्म देशमुख आजादी से अब तक इस गांव में कभी भी पंचायत चुनाव नहीं करवाए गए हैं। यहां हमेशासे ही आपसी सहमति से निर्विरोध ही पंचायत चुनाव संपन्न हो गए हैं। गांव के लगभग सभी लोग शिक्षित हैं, जो अपने आप में एक मिसाल से कम नहीं है।आपराधिक मामलों में भी इस गांव ने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए हैं। बताते हैं कि इस गांव का एक भी मामला थाने या अदालत में पंजीबद्ध नहीं है। यहां के सारे विवाद आपसी सहमति से ही सुलझा लिए जाते हैं, थाने, कोर्ट कचहरी की अगर नौबत भी आ जाती है तो आपसी राजीनामे के अस्त्र से उसे निपटा दिया जाता है।प्रगति और विकास के प्रति यह गांव कितना जागरूक है, इस बात का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि शासन द्वारा किसी भी मद में मंजूर अनुदान से ज्यादा राशि इस गांव के लोग जन भागीदारी से जुटा लेते हैं, यही कारण है कि इस गांव में कभी विकास के पहिए थमे नहीं है।केंद्र सरकार के समग्र स्वच्छता अभियान की शत प्रतिशत सफलता देखना हो तो कोई नरसिंहपुर से लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित इस गांव का भ्रमण करे। इस गांव में हर घर में पक्का शौचालय होना ही इस अभियान की पूर्णता को दर्शान के लिए काफी कहा जा सकता है।इस गांव की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह क्षेत्र पूरी तरह से नशामुक्त क्षेत्र है। वर्तमान में सरकारें आबकारी की आय बढ़ाने के लिए तरह तरह की जुगत लगा रही है, किन्तु सरकार की इन कोशिशों का असर इस गांव पर होता नहीं दिखता। अगर कोई नशा करता पाया भी जाता है तो गांव वाले एक राय होकर उसे गांव से बाहर का रास्ता दिखाने से नहीं चूकते।इस गांव की लोकप्रियता सुनकर पिछले दिनों मध्य प्रदेश के निजाम शिवराज सिंह चौहान ने भी यहां जाकर असलियत जानी, और वास्तविकता से रूबरू होकर उन्होंने तो घोषणा ही कर डाली कि अगर कोई गांव निर्विरोध ग्राम पंचायत प्रतिनिधियों का चुनाव करेगा तो उसे पांच लाख रूपए की राशि बतौर समरस पुरूस्कार दी जाएगी।सच ही है राजनीति में ``साम दाम दण्ड और भेद`` सब कुछ जायज है, किन्तु अगर किसी गांव में चुनाव के बजाए आपसी सहमति से ही काम चलाया जा सके तो आपसी सोहाद्र बनने में समय नहीं लगेगा। वहीं दूसरी ओर नशा नाश की जड़ पर भी अगर काबू पाया जा सके तो देश में सुराज आने में समय नहीं लगेगा।आर्थिक संकट का रोना रोने वाली प्रदेश और केंद्र सरकारों के लिए भी एक अच्छा उदहरण पेश किया है बघुवारा ने। इस गांव के लोग अपने खुद के गांव के लिए अपनी जेब ढीली कर साबित कर रहे हैं कि वे खुदगर्ज न होकर गांव के लिए जीना जानते हैं, वरना आज के इस युग में हर कोई खुद के लिए ही जाने पर विश्वास करने लगा है।मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इस गांव के लोगों की सभी मांगों को मानकर उनका हौसला बढ़ाया है, इसके लिए शिवराज सिंह चौहान साधुवाद के पात्र हैं। साथ ही शिवराज सिंह चौहान को चाहिए कि उनके सूबे में इस तरह के गांवों की संख्या एक से बढ़कर दशक फिर सैकड़ा पार करे इस तरह का उपजाउ माहौल तैयार करें। वैसे भी जनहित एवं कल्याणकारी योजनाओं के लिए शिवराज का नाम जाना जाता है।वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश सूबे में ही अशिक्षा और अज्ञान के चलते रतलाम जिले में ढाई साल का एक बच्चा नशे में दिन रात टुन्न रहता है, और किसी को पता तक नहीं! कितने आश्चर्य की बात है कि अत्याधुनिक संचार साधनों के होते हुए यह बात आज तक प्रकाश में नहीं आ सकी है। निश्चित तौर पर यह रतलाम जिला प्रशासन, वहां के जनप्रतिनिधियों और शिवराज सरकार विशेषकर केद्रीय आदिवासी मामलों के मंत्री कांतिलाल भूरिया के लिए शर्म की बात है, जिनका कि यह संसदीय क्षेत्र है।केंद्र और राज्य सरकार को चाहिए कि इस गांव को प्रदेश और राष्ट्रीय क्षितिज पर चमकाए ताकि देश के अन्य ग्रामों के लिए नज़ीर बन चुके बघुवारा से लोग प्रेरणा लेकर आपसी भाईचारे और सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और अनुपालन को पूरी तरह सुनिश्चित कर सकें।