शनिवार, 20 जून 2009

20 june 2009

इससे बेहतर तो गुलामी ही थी. . . .

(लिमटी खरे)

पहले मुगल फिर ब्रितानी हुकूमत की दासता की जंजीरों से मुक्त हुए भारत को छ: दशक से अधिक समय बीत चुका है, किन्तु आज इक्कीसवीं सदी के भारत में देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली मेें अगर किसी महिला को अपने शिशु को सड़क पर जन्म देना पड़े तो यह केंद्र और सूबे की सरकार को शर्मसार करने वाली बात है।गत दिवस राजधानी दिल्ली के गुरू तेग बहादुर अस्पताल में इसी तरह का एक वाक्या पेश आया। गर्भवती महिला अपने परिजनों के साथ चिकित्सालय के गेट पर सुरक्षा कर्मी से अंदर जाने मिन्नत करती रही। बाद में मदमस्त चिकित्सकों ने उसके पति को कागजी खानापूर्ती के लिए भेज दिया गया।इस दौरान गर्भवती महिला सड़क पर ही पड़ी तड़पती रही। अस्पताल में अराजकता का आलम यह था कि उसके पति को स्टेचर तक नसीब नहीं हुआ। परिणामस्वरूप महिला ने सड़क पर ही नवजात को जन्म दे दिया। यह अलहदा बात है कि जैसे ही अस्पताल प्रशासन को इस बात की इत्तेला मिली आनन फानन उस महिला को अस्पताल में भर्ती करवा दिया गया।जब देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली के अस्पतालों में चिकित्सकों की मुगलई चल रही है, तो फिर सुदूर ग्रामीण अंचलों में चिकित्सा सुविधा की भयावहता की कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सच ही है, आम हिन्दुस्तानी आज भी नीम हकीमों के भरोसे ही अपनी सेहत को रखे हुए है।सरकारें इस बारे में कुछ सोचें अथवा नहीं किन्तु सुखद बात यह है कि देश की पहली महिला महामहिम राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल इस बारे में अपनी पीड़ा अनेक बार जाहिर कर चुकीं हैं। महामहिम ने अनेकों बार देश में बिगड़ेल चिकित्सा व्यवस्था पर नाराजगी भी जताई है, किन्तु देश के मोटी चमड़ी वाले राजनेताओं पर इसका कोई असर होता नहीं दिख रहा है।एसा नहीं कि महामहिम ने कोरी कागजी बातें की हों। महामहिम ने कहा था कि देश के 271 मेडिकल कालेज से प्रतिवर्ष 31 हजार चिकित्सक उपाधि ग्रहण करते हैं। उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि इसके बावजूद भारत में आज भी छह लाख डाक्टरों व 10 लाख नसो± कÊ कमी है। राष्ट्रपति ने कहा था कि वैसे तो ग्यारहवÈ पंचवषÊय योजना में डाक्टरों के अभाव वाले राज्यों में 60 मेडिकल कालेज व 225 निर्र्सग कालेज खोलने का लक्ष्य है, लेकिन केवल संख्या बढ़ा देने से ही काम नहÈ चलेगा।सरकारी आंकड़े चाहे जो कहें पर ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। मजरे, टोले, गांव या छोटे शहरों में रहने वाला आम भारतीय आज भी झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे पर ही है। इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं सरकारें। कितने आश्चर्य की बात है कि आजादी के साठ साल बीत जाने के बाद भी सरकारों द्वारा चिकित्सकों को ग्रामों की ओर भेजने के मार्ग प्रशस्त नहीं किए जा सके हैं।अपने अपने मतदाताओं को लुभाने के लिए सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी), प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी), उप स्वास्थ्य केंद्र या सिटी डिस्पेंसरी तो स्वीकृत करा लेते हैं किन्तु इन अस्पतालों में कितना अमला वास्तव में कार्यरत है, इस बारे में देखने सुनने की फरसत किसी को भी नहीं है। सत्ता के मद में चूर ये जनप्रतिनिधि चुनावो की घोषणा के साथ ही एक बार फिर सक्रिय हो मतदाताओं को लुभावने वादों से पाट देते हैं।नेशनल रूलर हेल्थ मिशन के प्रतिवेदन पर अगर नज़र डाली जाए तो देश की साठ फीसदी से अधिक पीएचसी में सर्जन नहीं हैं, इतना ही नहीं पचास फीसदी जगह महिला चिकित्सक गायब हैं, तो 55 फीसदी जगह बाल रोग विशेषज्ञ। क्या ये भयावह आंकड़े सरकार की तंत्रा तोड़ने के लिए नाकाफी नहीं हैं।दिया तले अंधेरा की कहावत देश की सबसे बड़ी पंचायत में साफ हो जाती है। यूं तो सभी दल आरक्षण का झुनझुना बजाकर वोट बैंक तगड़ा करने की फिराक में रहते हैं किन्तु सांसदों के इलाज के लिए तैनात चिकित्सा कर्मियों में महज 22 फीसदी चिकित्सक ही आरक्षित वर्ग के हैं। हाल ही में सूचना के अधिकार में निकाली गई जानकारी से यह कड़वा सच सामने आया है। सांसदों के लिए तैनात 49 चिकित्सकों मेंसे नौ अनुसूचित जाति, एक एक अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के हैं।बहरहाल प्रश्न यह उठता है कि आखिर चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे के माध्यम से जनसेवा को उतारू युवा गांव की ओर रूख क्यों नहीं करना चाहते? संभवत: विलासिता के आदी हो चुके युवाअों को गांव की धूल मिट्टी और अभाव का जीवन रास नहीं आता होगा इसी के चलते वे गांव नहीं जाना चाहते। इसके साथ ही साथ शहरों में सरकारी चिकित्सकों के आवासों पर लगने वाली मरीजों की भीड़ भी उन्हें आकषिZत करती होगी। हर जिला मुख्यालय का नामी सरकारी डॉक्टर किसी न किसी अध्यनरत चिकित्सक का `पायोनियर` भी होता होगा। उसके दवाखाने में लगी मरीजों की भीड़ उसे चिकित्सा पेशे को अपनाने को बेबस करती होगी।एक ही जगह पदस्थ रहकर अपनी निजी प्रेिक्टस (दुकान) जमाकर ये चिकित्सक अनिवार्य सेवानिवृत्ति (वीआरएस) लेकर बड़े बड़े आलीशान नर्सिंग होम की स्थापना कर मरीजों की जेबें हल्की करने से नहीं चूकते हैं। गाहे बेगाहे सांसद, विधायक, मंत्री के बीमार पड़ने पर उनकी तीमारदारी कर उनकी गुडबुक में अपना स्थान बनाकर ये तबादलों से अपने आप को बचाए रखते हैं।कहने को तो देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक न जाने कितने नेताओं ने कहा है कि भारत का दिल गांव में बसता है। पर गांव की सुध लेने वाला आखिर है कौन? इस सबके आभाव में अप्रशिक्षित चिकित्सा कर्मी आज भारत के दिल के स्वास्थ्य के साथ सरेआम खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं।महामहिम ने अपनी पीड़ा कुछ इस शब्दों में भी बयां कर सरकारोंं को चेताने का काम किया है कि उनके पिता भी जनसेवा के लिए चिकित्सक बनना चाहतीं थीं, किन्तु जलगांव में आयुZविज्ञान कालेज के न होने से उनके पिता का सपना अधूरा ही रह गया। मुद्दा मेडीकल कालेज का न होना नहीं है, मुद्दा तो यह है कि महामहिम ने आखिर देश के आखिरी आदमी के बारे में सोचकर अपनी भावनाओं से सरकारों को आवगत कराया है, मगर हमारी सरकारें भी महामहिम की मंशा पर पानी डालने से नहीं चूक रही हैं।देश की राजनैतिक राजधानी में केंद्र और राज्य सरकार की नाक के नीचे जब महिला को सड़क पर प्रसव के लिए मजबूर होना पड़ा तो शेष भारत की बात करना बेमानी ही होगी। केंद्र सरकार को चाहिए कि वह बेलगाम दौड़ते चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे को अपनी स्वार्थसिद्ध बनाने वाले चिकित्सकों के घोड़ों की रकाब कसें, वरना आने वाले समय में हालात को संभालना किसी भी सरकार के बस में नहीं होगा।


घर वापसी के बाद भी उपेक्षित हैं भाजपा नेता!

(लिमटी खरे)

नई दिल्ली। भारतीय जनता पार्टी से टूटकर फायर ब्रांड साध्वी उमाश्री भारती के नेतृत्व वाली भारतीय जनशक्ति पार्टी को मजबूत करने के बाद पुन: भाजपा में वापस आए नेताओं के मन में सत्ता और संगठन के रवैए को लेकर निराशा के भाव जन्म लेने लगे है। इन नेताओं को घरवासपी के बाद तोहफे के तौर पर अगर कुछ मिला है तो महज उपेक्षा। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में भी इस मुद्दे के उछलने की संभावना जताई जा रही है।गौरतलब होगा कि भाजश से नाता तोड़कर रघुनंदन शर्मा, प्रहलाद सिंह पटेल, गोरीशंकर शेजवार जैसे कद्दावर नेताओं के साथ बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं और नेताओें ने भाजपा में पुर्नवापसी की है। मान मनौव्वल और सेटिंग की राजनीति के चलते हुई घरवापसी के बाद उम्मीद की जा रही थी कि इन नेताओं को कम से कम संगठन में महती जवाबदारी दी जाएगी, किन्तु एसा हुआ नहीं।इतना ही नहीं इन नेताओं के प्रभाव वाले क्षेत्रों में भी भाजपा ने लोकसभा चुनावों में इन्हें नहीं उतारा। एक ओर भाजपा ने रघुनंदन शर्मा को राज्य सभा के रास्ते संसद में भेजा है, किन्तु यह भाजपा की मजबूरी माना जा रहा है। भरोसेमंद सूत्रों के अनुसार भाजश में निष्ठा रखने वाले भाजपाई विधायकों को पैजामे के अंदर ही रखने की गरज से रघुनंदन शर्मा को राज्य सभा का टिकिट दिया गया था, अन्यथा उमाश्री में निष्ठा रखने वाले विधायक उस दौरान सीधे सीधे कांग्रेस समर्थित उम्मीदवार विवेक तन्खा के पक्ष में मतदान कर देते।मजे की बात तो यह है कि रघुनंदन शर्मा का मालवा, प्रहलाद सिंह पटेल का महाकौशल में जबर्दस्त प्रभाव है किन्तु लोकसभा चुनावों में पार्टी ने इन दोनों को कोई विशेष जवाबदारी नहीं दी, और तो और गोरीशंकर शेजवार को रायसेन में ही काम करने की सलाह तक दे डाली।पार्टी सूत्रों का कहना है कि जवाबदारी के बिना खाली बैठे तीनों नेताओं द्वारा उपेक्षा के दंश से मुक्ति के मार्ग खोजे जा रहे हैं। काडर बेस्ड पार्टी और फिर नई आमद होने के कारण ये नेता सार्वजनिक तौर पर टीका टिप्पणी करने से अपने आप को बचाए हुए हैं, किन्तु इनकी पीड़ा कहीं न कहीं किसी और रूप में सामने आ ही जाती है।