गुरुवार, 28 मई 2009

पश्चिम बंगाल से बाहर निकलिए ममता जी
(लिमटी खरे)
रेल मंत्री ममता बनर्जी जनाधार वाली नेता हैं, इसमें कोई शक नहीं है। वे पश्चिम बंगाल से हैं अत: अपने राज्य को पहली प्राथमिकता देना नेतिकता के आधार पर उनका आधार माना जा सकता है। राज्य में आए तूफान पर उनकी चिंता वाजिब कही जा सकती है। अन्य मंत्रियो से उलट उन्होंने अपने मंत्रालय का कामकाज कोलकता में संभाला।कानून की किसी भी किताब के किसी भी सफे में यह उल्लेखित नहीं है कि मंत्री अपना कार्यभार कहां ग्रहण करेगा। पश्चिम बंगाल `आईला` नामक तूफान की चपेट में है। इन परिस्थितियों में सत्ता की चमक दमक दिखाने वे अपना सूबा छोडकर दिल्ली कैसे जा सकतीं थीं। यह अलहदा बात है कि दीगर मंत्रियों ने ममता का अनुसरण नहीं किया और न ही भविष्य में कोई करने वाला ही नजर आता है।परंपरा से हटना और परिवर्तन लाना अच्छा माना जाता है, किन्तु जब नया रास्ता दुखदायी हो जाए तो एसे रास्ते के बारे में सोचना भी व्यर्थ ही है। वैसे ममता बनर्जी अगर मनमानी कर सकती हैं तो तमिलनाडू या मध्य प्रदेश से मंत्रीमण्डल में शामिल मंत्रियों को चेन्नई या भोपाल में शपथ लेने या विभाग का कामकाज संभालने से कौन रोक सकेगा। ममता अगर जिद्दी हैं तो इस देश में और भी जिद्दी राजनेता मोजूद हैं, जो मीडिया की सुिर्खयों में बने रहने के लिए क्रुछ भी कर गुजरने को तैयार हैं।ममता बनर्जी ने कोलकता में कार्यभार आरंभ कर एक नजीर पेश की है। इसके साथ ही उन्होंने 500 रूपए महीने से कम आय वालों को 100 किलोमीटर तक की यात्रा के लिए 20 रूपए मासिक पास की घोषणा भी कर दी है, जिससे साफ हो गया है कि वे भी स्वयंभू मेनेजमेंट गुरू लालू प्रसाद यादव की लोकलुभावन घोषणाओं की रेल को और आगे ले जाने की ओर अग्रसर हैं।सुिर्खयों में बने रहने के लिए ममता बनर्जी ने कोलकता में न केवल पदभार संभाला वरन् बयान भी दे दिया कि त्रणमूल कांग्रेस के केंद्रीय मंत्रियों को सप्ताह में पांच दिन का समय पश्चिम बंगाल को देना होगा। ममता का यह बयान देश के लिए चिंताजनक कहा जा सकता है।ढाई साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में पश्चिम बंगाल में अपनी पकड बनाने के लिए ममता जुगत लगा रहीं होंगी, किन्तु देश के साथ खिलवाड करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। हो सकता है त्रणमूल कांग्रेस के लिए अगला विधानसभा चुनाव जीवन मरण का प्रश्न बन गया हो पर, उनके दल के मंत्री देश के 28 सूबों और केंद्र शासित प्रदेशों में से पश्चिम बंगाल को 5 दिन एवं शेष बचे राज्यों के लिए महज 2 दिन देंगे। ममता का यह बयान भावावेश में दिया माना जा सकता है, किन्तु कोई भी इसे तर्कसंगत नहीं मानेगा।वैसे मंत्रियों का लगातार दिल्ली में बैठे रहना भी उचित नहीं कहा जा सकता है, किन्तु अगर उन्हें किसी राज्य विशेष में पांच दिन हाजिरी देनी हो तो चल चुकी केंद्र सरकार। ममता के फरमान को अगर उनके दल के मंत्रियों ने सर आंखों पर लिया तो केंद्र सरकार की चूलें हिल जाएंगी। हमारी नजर में विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ममता बनर्जी को चाहिए था कि वे एसे मंत्रालयों का चयन करतीं जिसमें मंत्रियों की उपस्थिति ज्यादा मायने नहीं रखती, या फिर विधानसभा चुनावों तक उन्हें केंद्रीय मंत्रीमण्डल से अपने आप को दूर ही रखना था।विधानसभा के पहले पिछली सरकार में मध्य प्रदेश कोटे के मंत्रियों अजुZन सिंह, कमल नाथ, कांति लाल भूरिया, सुरेश पचौरी एवं ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जिस तरह निर्वहन किया था, उससे सभी को सबक लेना चाहिए। इन नेताओं ने पिछले पांच सालों में प्रदेश की और इक्का दुक्का बार ही झांका होगा। इन मंत्रियों की नजरों में समस्त प्रदेश बराबर थे या नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु इन्होंने मध्य प्रदेश की जमकर उपेक्षा की यह बात सामने उभरकर आई।आज यक्ष प्रश्न यह खडा हो गया है कि ममता बनर्जी पहले पश्चिम बंगाल की नेता हैं अथवा पहले वे भारत सरकार की रेल मंत्री हैं? पंजाब पूरी तरह सुलग रहा है। वहां रेल व्यवस्थाएं ठप्प हो चुकी हैं। ममता की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए? बंगाल में आए तूफान से प्रभावितों के प्रति सहानभूति जताकर सूबे की वामपंथी सरकार से प्रतिस्पर्धा करना अथवा ठप्प पडी रेल सुविधाओं को पटरी पर लाना।विश्व के सबसे बडे रेल नेटवर्क में आज घुन लग चुकी है। पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा आकर्षक घोषणाएं अवश्य की गईं थीं, किन्तु वे कितनी व्यवहारिक निकलीं यह बात आम यात्री ही बेहतर बता सकते हैं। ममता जी पश्चिम बंगाल से बाहर निकलिए। माना कि आप बंगाल की नेता हैं, किन्तु अब आप आजाद हिन्दुस्तान की रेल मंत्री हैं। आपकी प्राथमिकताओं में से एक पश्चिम बंगाल हो सकता है, किन्तु सिर्फ पश्चिम बंगाल को आप अपनी प्राथमिकता न बनाएं, वरना देश का इससे बडा दुर्भाग्य और कुछ नहीं होगा।


असंतुलन अभी भी बरकरार है केंद्रीय मंत्रीमण्डल में
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। एक सप्ताह चली कशमकाश के बाद मनमोहन सिंह ने अपने जम्बो मंत्रीमण्डल को स्वरूप अवश्य दे दिया है, किन्तु उसमें असंतुलन अभी भी बरकरार है। इस बार सहयोगी दलों के कम दबाव के चलते अपेक्षा की जा रही थी कि मंत्रीमण्डल में हर तरह के असंतुलन को दूर किया जा सकेगा, वस्तुत: एसा हुआ नहीं। मनमोहन के मंत्रीमण्डल में उन्हें मिलाकर 79 सदस्य हैं, जबकि तय सीमा के अनुसार इसमेें 81 सदस्य हो सकते हैं।0 सबसे अधिक मंत्री हैं कांग्रेस केकांग्रेस ने 206 सीट जीतीं हैं एवं उसके मंत्रियों की संख्या 60 है। तृणमूल कांग्रेस ने 19 सीटों के साथ 7, डीएमके ने 18 सीटों के साथ 7, राष्ट्रवादी कांग्रेस ने 9 सांसदों के बूते 3, नेशनल कांफ्रेस ने 3 सीटों के साथ एक मंत्री का पद तबाडा है। अन्य में 6 सीटों पर एक ही मंत्री बन पाया है।

महिला आरक्षण बिल पास होना सशंकित
पंद्रहवीं लोकसभा के विशालकाय मंत्रीमण्डल में महिलाओं को कम तरजीह दिए जाने से लगने लगा है कि बहुप्रतिक्षित महिला आरक्षण बिल इस बार भी ठंडे बस्ते में ही धूल खाएगा। इस बार लोकसभा में पहली बार महिला सांसदों ने अर्धशतक लगाया है। इस बार 59 महिलाएं चुनकर आईं हैं। बावजूद इसके पिछली बार की तुलना में इस बार दस के बजाए 9 महिलाओं को ही मंत्रीमण्डल मे स्थान दिया गया है। पिछली केबनेट में शामिल डी.पुरंदेश्वरी एवं पनाबका लक्ष्मी, मीरा कुमार, अंबिका सोनी, कुमारी शैलजा को फिर से स्थान दिया गया है, जबकि ममता बनर्जी, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पित्न प्रणीत कौर, कृष्णा तीरथ, पूर्व लोकसभाध्यक्ष पी.ए.संगमा की पुत्री एवं सबसे युवा मंत्री अगाथा संगमा को इस बार मंत्री बनाया गया है।

उपेक्षित रह गए आदिवासी
आदिवसी नेतृत्व की इस बार घोर उपेक्षा की गई है। देश में आठ फीसदी आदिवासी समुदाय के लिहाज से केंद्र में कम से कम आधा दर्जन पद इस समुदाय की झोली में जाने चाहिए थे। आदिवासियों में मध्य प्रदेश के कांतिलाल भूरिया अकेले होंगे जो केबनेट मंत्री के रूप में कार्य करेंगे। इनको मिलाकर कुल चार मंत्रियों को इस समुदाय से लिया गया है। भूरिया का नाम भी अंतिम समय में ही शामिल किया गया है। पिछडे वर्ग के केवल 11 मंत्री हैं। मजे की बात तो यह है कि 79 सदस्यीय मंत्री मण्डल में 46 सदस्य अगडी जातियों के हैं।

9 दलित और 5 मुस्लिम मंत्री
मनमोहन सरकार में दलित मंत्रियों की संख्या 9 है, जिनमें सुशील कुमार शिंदे, मीरा कुमार, ए.राजा, मिल्लकाजुZन खडगे, कुमारी शैलजा एवं मुकुल वासनिक शामिल हैं। मायावती से निपटने इस बार कांग्रेस ने दलितों पर ज्यादा ध्यान दिया है। इसके अलावा मुस्लिम समुदाय से गुलाम नवी आजाद एवं सलमान खुशीZद केबनेट मंत्री तो फारूख अब्दुल्ला (नेशनल कांफ्रेस), ई.अहमद (मुस्लिम लीग) एवं त्रणमूल के सुल्तान अहमद राज्यमंत्री बनाए गए हैं।

3 मसीही तो जाटों का टोटा
ईसाई समुदाय से ए.के.अंटोनी, प्रो.के.वी.थामस एवं विसेंट पॉल को मंत्रीमण्डल में शामिल किया गया है। जाट समुदाय से महज महादेव खंदेला को केबनेट में बतौर राज्यमंत्री शामिल किया गया है।

छत्तीगढ के हाथ लगी निराशा
मध्य प्रदेश से टूटकर अस्तित्व में आए छत्तीसगढ राज्य से इस बार भी किसी को मंत्री नहीं बनाया गया है। छग के इकलौते सांसद चरण दास महंत का नाम सिर्फ चर्चाओं तक ही सीमित रहा। राज्य से पिछले दरवाजे से आने वाले नेताओं में मोती लाल वोरा और मोहसीना किदवई के नाम शामिल थे, किन्तु वे दौड से काफी दूर ही रहे। अटल बिहारी बाजपेयी के शासनकाल को छोड दिया जाए तो पिछले एक दशक में राष्ट्रीय राजनीति में छत्तीगढ का नामलेवा नहीं बचा है।

मध्य प्रदेश में विन्ध्य, बुंदेलखण्ड उपेक्षित
इस बार मध्य प्रदेश में विन्ध्य प्रदेश और बुंदेलखण्ड में मायूसी पसरी दिखाई दे रही है। विन्ध्य के ठाकुर अजुZन सिंह को मंत्रीमण्डल से चलता कर देने के बाद अब दोनों ही इलाकों का केंद्र में प्रतिनिधित्व नहीं रह गया है। कमल नाथ महाकौशल (सतपुडा), कांतिलाल भूरिया एवं अरूण पटेल मालवा तो ज्योतिरादित्य सिंधिया चम्बल से हैं।0 यूपी से एक भी कैबिनेट मंत्री नहÈ1984 के बाद उत्तर प्रदेश में पहली बार 21 लोकसभा सीटों तक पहुंचने वाली कांग्रेस व उसकी सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इस प्रदेश से एक कैबिनेट मंत्री नहÈ मिला। विडम्बना ही कही जाएगी कि जिस सूबे ने देश को आठ प्रधानमंत्री दिए, आज वहां से चुने गए कांग्रेस सांसदों में से एक भी कैबिनेट मंत्री बनने लायक ही नहÈ है।

एमपी से जुडे दो स्तंभ धराशायी
मध्य प्रदेश से जुडी दो शिक्सयतें इस बार औंधे मुंह गिरीं हैं। अव्वल तो मानव संसाधन विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय को संभालने वाले कुंवर अजुZन सिंह को मंत्रीमण्डल से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है। ``मोहि कहां विश्राम`` से एक बार फिर चर्चा में आए अजुZन सिह को संभवत: उनकी पुत्री वीणा सिंह के निर्दलीय तौर पर चुनाव लडने के चलते विश्राम दिया गया है। इसके अलावा मध्य प्रदेश के रास्ते राज्यसभा में गए कानून मंत्री जो वर्तमान में हरियाणा से राज्य सभा सदस्य हैं, को भी इस बार स्थान नहीं मिल सका है।

पूवÊ भारत से होंगे 11 कैबिनेट मंत्री
पिÜचम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने अपनी बड़ी जीत की केंद्र सरकार से मनमाफिक कीमत वसूल ली है। तृणमूल अध्यक्ष ममता बनजÊ जहां पहले ही केंद्रीय रेल मंत्री के रूप में कार्यभार संभाल चुकी हैं, वहÈ उनके छह अन्य सांसद राज्यमंत्री के रूप में शामिल हो गए हैं। जबकि झारखंड और बिहार के खाते में एक एक केंद्रीय मंत्री पद गया है। उड़ीसा को सिर्फ एक राज्यमंत्री से संतोष करना होगा। पिÜचम बंगाल, बिहार, उड़ीसा और झारखंड में संप्रग से जीतने वाले कुल चौंतीस सांसदों में 11 मंत्री होंगे। यानी पूवÊ भारत से आए संप्रग के कुल सांसदों में से एक तिहाई को केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है।

दिल्ली का दबदबा
देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली का दबदबा दूसरी बार देखने को मिल रहा है। इस बार कपिल सिब्बल को कबीना तो कृष्णा तीरथ को राज्य मंत्री स्वतंत्र प्रभार और अजय माकन को राज्यमंत्री बनाया गया है। लगभग तीन दशक पहले एच.के.एल.भगत, जगदीश टाईटलर और के.सी.पंत को एक साथ मंत्रीमण्डल में शामिल किया गया था।

तरूणाई हाशिए पर
नए मंत्रीमण्डल में नौजवान सांसदों में अजय माकन, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जहां फिर से मंत्री बनाए गए हैं, वहÈ सचिन पायलट, अरुण यादव, प्रदीप जैन जैसे कुछ नए नौजवान भी शामिल किए गए हैं। द्रमुक के खाते से मंत्री बने ए.राजा और दयानिधि मारन को भी नौजवानों की सूची में जोड़ा जाए तो भी इनकी संख्या बमुश्किल एक दर्जन पहुंच सकी है।गौरतलब है कि पंद्रहवÈ लोकसभा में नौजवानों को बड़ा प्रतिनिधित्व मिला है। आंकड़े बताते हैं कि पच्चीस से चालीस की उम्र के 79 सांसद जीतकर आए हैं। इस बार वैसे तो 226 सांसद एसे हैं जिनकी उम्र 50 से कम है।
सेन की जमानत : स्वागतयोग्य फैसला
(लिमटी खरे)
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के देश के उपाध्यक्ष डॉ.विनायक सेन को जमानत पर रिहा कर देने के आदेश दे दिए हैं, जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। डॉ.विनायक सेन पिछले दो सालों से रायुपर की जेल में बंद हैं।राज्य की रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने डॉ.विनायक सेन पर नक्सलियों से संबंध रखने के आरोप लगाए हैं। राज्य सरकार का कहना है कि डॉ.विनायक सेन जेल में बंद एक कथित माओवादी के लिए संदेश वाहक का काम करने के साथ ही साथ सूबे में नक्सलवाद को बढावा दे रहे थे। यद्यपि डॉ.विनायक सेन आरंभ से ही सरकार के इन आरोपों का खण्डन करते आ रहे हैं किन्तु उनकी आवाज को सुनने वाला कोई नहीं है। न्यायालय ने उन्हें निचली अदालत में मुचलका भरने के उपरांत जमानत देने के आदेश दिए हैं।सर्वोच्च न्यायालय की अवकाशकालीन बैंच में न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और दीपक वर्मा ने छत्तीसगढ सरकार के वकील के तर्क को सुनने से साफ इंकार कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने कहा कि उन्हें मामले की पूरी जानकारी है। कोर्ट के इस वक्तव्य से साफ हो जाता है कि उसे छत्तीगढ सरकार के तर्क से कोई सरोकार नहीं है, और वह सरकार के रवैए से संतुष्ट नहीं है।दरअसल डॉ.विनायक सेन ने दिल की बीमारी का इलाज वेल्लूर में कराने के लिए जमानत की अर्जी दी थी, जिस पर राज्य सरकार द्वारा आपत्ति लगा दी थी। राज्य सरकार अगर चाहती तो डॉ.विनायक सेन की सेवाओं को देखते हुए उनकी जमानत की अर्जी का विरोध नहीं करती। वस्तुत: एसा हुआ नहीं।उधर जमानत मिलने के उपरांत डॉ.विनायक सेन ने आशंका जाहिर की है कि उन्हें सरकार से खतरा है। उनका कहना है कि राज्य सरकार कानून का जिस तरह बेजा इस्तेमाल कर रही है, उससे कभी भी कुछ भी घटित हो सकता है। सच ही कहा गया है ``समरथ को नहीं दोष गोसाईं।``रमन सरकार ने डॉ.विनायक सेन पर जिस तरह नक्सलियों से मिले होने के आरोप लगाए हैं, उससे सभी का चकित होना स्वाभाविक है। हम यह नहीं कहते कि सरकार के आरोप निराधार होंगे, सच्चाई क्या है, यह तो प्रकरण की समाप्ति पर ही सामने आ सकेगी, किन्तु सरकार क्या यह नहीं जानती कि परोक्ष रूप से तो नक्सल प्रभावित इलाकों में पदस्थ सरकारी मुलाजिम भी उनसे मिले हुए रहते हैं।एक वाक्या याद आ रहा है। बालाघाट में नक्सली हिंसा जोरों पर थी। नक्सलियों ने बालाघाट में बिठली के समीप उप निरीक्षक प्रकाश कतलम सहित 16 लोगों की जीप को एम्बु्रश लगाकर उडा दिया था। इसके बाद पुलिस की घेराबंदी में पांच नक्सली मारे गए थे।उस दौरान रिपोटि्रZंग के लिए हम भी मौके पर गए। तत्कालीन जिलाधिकारी एन.बेजेंद्र कुमार और पुलिस कप्तान मुकेश गुप्ता के साथ मौका ए वारदात पर पहुंचे। भारी संख्या में मौजूद सुरक्षा बल के बीच मारे गए नक्सलियों की तलाशी में पुलिस को एक डायरी भी मिली।बताते हैं उस डायरी में चौथ वसूली वालों की लिस्ट थी। इस फेहरिस्त में वहां पदस्थ पुलिस सहित अनेक सरकारी अधिकारियों कर्मचारियों के नाम थे। बहरहाल सच्चाई चाहे जो भी हो पर उस डायरी का खुलासा उसके बाद नहीं हो सका था। कहने का तात्पर्य महज इतना है कि नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में पदस्थ सरकारी कर्मचारियों को भी आतंक का भय सताता है, इसलिए दबे छुपे तौर पर ही सही वे नक्सलियों को प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोग करते हैें। वरना क्या कारण है कि विपुल धनराशि व्यय करने और इतने बडे बडे और फूल प्रूफ आपरेशन्स के बाद भी नक्सली समस्या जड से नहीं उखड पा रही है।डॉ.विनायक सेन कोई एरी गेरी नहीं वरन अंतर्राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त शिख्सयत है। उन्होंने छत्तीगढ राज्य में स्वास्थ्य सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई है। डॉ.सेन के सुझाव पर ही सरकार द्वारा महिला स्वास्थ्य कार्यकर्ता तैयार करने के लिए ``मितानिन`` योजना आरंभ की थी।छत्तीसगढ सरकार को चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का सम्मान करते हुए डॉ.विनायक सेन को इलाज हेतु वेल्लूर जाने में मदद करे, एवं अगर वह किसी तरह के पूर्वाग्रह से ग्रसित है तो उसे तजकर अपनी दिशा तय करे, और अगर वाकई डॉ.विनायक सेन ने नक्सलवादियों से संबंध रखकर नक्सलवाद को हवा दी है, तो निश्चित तौर पर उन्हें सजा मिलनी चाहिए।

कमल नाथ को मिल सकता है ग्रामीण विकास!
वाणिज्य मंत्रालय नहीं रही उनकी पसंद
मानव संसाधन के लिए भी उछला नाम
(लिमटी खरे)
नई दिल्ली। मध्य प्रदेश के छिंदवाडा जिले को विश्व के मानचित्र पर पहचान दिलाने वाले केंद्रीय कबीना मंत्री कमल नाथ को ग्रामीण विकास अथवा मानव संसाधन विभाग की जवाबदारी साैंपी जा सकती है। कांग्रेस का एक खेमा उन्हें वापस वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय दिलाने पर आमदा दिखाई पड रहा है।केंद्रीय मंत्री कमल नाथ के करीबी सूत्रों का कहना है कि वे अब वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय छोडना चाह रहे हैं। सूत्रों ने बताया कि उनकी पहली प्रथमिकता विदेश मंत्रालय थी, जो कृष्णा को मिल गया है। इसके उपरांत उनकी पसंद वन एवं पर्यावरण, शहरी विकास अथवा उर्जा मंत्रालय थी। उधर कांग्रेस की सत्ता के शीर्ष केंद्र 10 जनपथ के उच्च पदस्थ सूत्रों का कहना है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय कमल नाथ को देने पर विचार हुआ था, किन्तु राजस्थान के सी.पी.जोशी भी इस मंत्रालय में अपनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।सूत्रों के अनुसार कांग्रेस अपने एजेंडे और घोषणा पत्र के हिसाब से महत्वपूर्ण मंत्रालयों को बडे ही सोचविचार के उपरांत बांटने का उपक्रम करेगी। अजुZन सिंह को मंत्री न बनाए जाने के बाद रिक्त हुआ महत्वपूर्ण मानव संसाधन एवं विकास मंत्रालय भी कमल नाथ के खाते में जा सकता है।सूत्रों ने यह भी संकेत दिए कि कमल नाथ के लंबे संसदीय अनुभव एवं उनकी कुशल कार्यप्रणाली का पूरा पूरा दोहन पार्टी करना चाह रही है, यही कारण है कि उन्हें कोई एसा मंत्रालय सौंपा जाएगा जिसमें वे कुछ करिश्मा कर सकें। गौरतलब होगा कि सबसे पहले उन्हें 1991 में नरसिंहराव सरकार में वन एवं पर्यावरण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, जिसका निर्वहन उन्होंने बेहतरीन तरीके से किया।इसके उपरांत वस्त्र मंत्री के रूप में भी उनका कार्यकाल स्विर्णम ही कहा जा सकता है। पिछले पांच सालों में वे देश के वाणिज्य और उद्योग मंत्री रहे। इन पांच सालों में समूचे विश्व में भारत का जिस तरह डंका बजा उसके लिए काफी हद तक कमल नाथ की कार्य प्रणाली को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।ज्ञातव्य है कि कमल नाथ ने संजय गांधी की यूथ ब्रिगेड से अपरा राजनीतिक केरियर आरंभ किया और 1980 में मध्य प्रदेश की छिंदवाडा संसदीय सीट से उन्होंने अपना पहला चुनाव लडा। 14 करोड 17 लाख की घोषित संपत्ति के मालिक कमल नाथ अब तक छिंदवाडा से आठ चुनाव जीत चुके हैं। 2004 से 2009 तक के कार्यकाल में उनकी गिनती सर्वश्रेष्ठ आला मंत्रियों में की जाती थी।